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चीन की मुद्रा नीति

संपादकीय ब्लॉग
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बीते वर्षों में अमेरिका समेत विकसित देशों द्वारा चीन को उसकी मुद्रा युआन के मूल्य न्यून बनाए रखने के लिए दोषी ठहराया जा रहा था। हो यह रहा था कि विदेशी कंपनिया चीन में माल का उत्पादन करने को उत्सुक थीं, क्योंकि चीन में वेतन न्यून थे। सरकार द्वारा विदेशी कंपनियों को छूट दी जा रही थी। यूनियन बनाने पर प्रतिबंध था। प्रदूषण करने की छूट थी। इन कारणों से चीन में विदेशी पूंजी आ रही थी। इसके साथ ही निर्यात चरम पर थे और इनके भुगतान के रूप में भी भारी मात्रा में रकम चीन को आ रही थी। सामान्य परिस्थितियों में इस आगमन के कारण चीन की मुद्रा का दाम बढ़ना चाहिए था। चीन में डॉलर की सप्लाई अधिक और डिमांड कम हो तो डॉलर का दाम गिरना चाहिए था। बाजार में भी ऐसा ही होता है, जब भिंडी की सप्लाई अधिक हो जाती है तो दाम गिर जाते हैं। डॉलर के दाम गिरने के प्रतिबिंब के रूप में युआन का मूल्य बढ़ना चाहिए था, परंतु चीन ने ऐसा नहीं होने दिया।

 

चीन की सरकार को भय था कि युआन का मूल्य बढ़ने से चीन में बने माल की कीमत अमेरिका में बढ़ जाएगी, जैसे वर्तमान में एक डॉलर के सामने 7 युआन मिल रहे हैं। चीन में 14 युआन की लागत से बनी टी-शर्ट को खरीदने के लिए अमेरिकी उपभोक्ता को वर्तमान में दो डॉलर देने होते हैं। यदि युआन का मूल्य बढ़ गया और एक डॉलर के सामने केवल 5 युआन मिले तो उसी 14 युआन की टी-शर्ट खरीदने को अमेरिकी उपभोक्ता को 3 डालर अदा करने होंगे। अत: चीन ने युआन के दाम को जबरन न्यून बनाए रखा ताकि उसके निर्यात बरकरार रहें और श्रमिकों को रोजगार मिलता रहे।

 

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए चीन के केंद्रीय बैंक ने डॉलर की भारी खरीद की। अनावश्यक डालर का प्रवेश चीन की अर्थव्यवस्था में नहीं होने दिया। इससे चीन की अर्थव्यवस्था में डॉलर की सप्लाई कम हो गई और डॉलर का दाम ऊंचा बना रहा, जैसे मंडी में आ रही भिंडी के ट्रक को बीच रास्ते दूसरे शहर भेज दिया जाए तो मंडी में भिंडी का दाम ऊंचा बना रहेगा। इस प्रकार चीन ने युआन का दाम न्यून रखा और चीन का माल पूरे विश्व में छा गया। भारतीय निर्यातक भी चीन की इस नीति से प्रभावित हुए। अमेरिकी उपभोक्ता को चीन की तुलना में भारत में बनी टी-शर्ट महंगी पड़ने लगी। चीन की तरह भारत सरकार रुपये के मूल्य को कृत्रिम उपायों से निर्धारित नहीं करती है। हम सभी को ध्यान होगा कि पिछले समय में रुपये का मूल्य 50 रुपये प्रति डॉलर से बढ़कर 39 रुपये हो गया था, फिर पुन: घटकर 49 पहुंचा और वर्तमान में 45 पर अटका हुआ है। भारतीय निर्यातकों को रुपये के मूल्य मूल्य परिवर्तन के साथ-साथ अपने माल के दाम घटाने-बढ़ाने पड़ते हैं। अतएव उन्हें विदेशों में माल बेचने में कठिनाई होती है।

 

विकसित देशों के लिए भी चीन की यह पालिसी कठिनाई पैदा करती है। चीन के सस्ते माल के सामने उनके घरेलू उद्योग कमजोर पड़ रहे हैं, जैसे चीन में बने टेलीविजन तथा दूसरे इलेक्ट्रानिक उपकरण यूरोप के बाजार में छा गए हैं। इसलिए विकसित देशों समेत भारत सरकार का चीन पर दबाव था कि युआन के मूल्य को कृत्रिम रूप से न्यून बनाए रखने की पालिसी को वह देश त्याग दे और युआन को ऊपर चढ़ने दे, परंतु अपने श्रमिकों की रक्षा करने को चीन ने इस बाहरी दबाव को नकार दिया था।

 

पिछले दिनों चीन की सरकार ने इस पालिसी में परिवर्तन के संकेत दिए हैं। कहा है कि अब युआन को चढ़ने-उतरने दिया जाएगा। इस नीति परिवर्तन के पीछे दो कारण दिखते हैं। पहला कारण यह कि अमेरिका में चीन के सस्ते माल की माग कम हो रही है। पूर्व में अमेरिकी उपभोक्ता ऋण लेकर माल खरीदने को उद्यत थे। उन्हें भरोसा था कि आने वाले समय में वे अपनी कमाई से इस ऋण की अदायगी कर देंगे। पिछले आर्थिक संकट के चलते उनका यह भरोसा जाता रहा है। वे अब ऋण लेकर खपत करने को तैयार नहीं हैं। दुकानों में चीन में बना सस्ता माल भरा पड़ा है, जिसके खरीददार नहीं हैं। यानी चीन में बने माल की बिक्री में अवरोध का कारण अमेरिकी उपभोक्ता में क्रय शक्ति के अभाव का है, न कि माल के महंगा होने का। जब माल कम मात्रा में ही बिकना है तो उसे महंगा बेचना ही लाभप्रद होता है। इसलिए चीन अपने माल का दाम बढ़ाने को राजी है।

 

दूसरा कारण है कि चीन के पास 2500 अरब डॉलर की राशि का विशाल मुद्रा भंडार एकत्रित हो गया है। इस रकम की विशालता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत की कुल वार्षिक आय लगभग 1000 अरब डालर है। जितनी रकम हम ढाई साल में कमाएंगे उतनी रकम का चीन के पास विदेशी मुद्रा भंडार है। समस्या यह है कि यह भंडार मुख्यत: अमेरिकी डॉलर में निवेशित है और अमेरिकी डॉलर के टूटने की संभावना बन रही है। डॉलर का दाम गिरने पर चीन को इस रकम पर भारी घाटा लगेगा, जैसे कंपनी के शेयर के दाम गिरने से सट्टेबाज को घाटा लगता है। अत: चीन नहीं चाहता कि डॉलर की और अधिक खरीद करे। डॉलर की खरीद न करने पर विदेशी निवेश एवं निर्यात के माध्यम से आ रहा डॉलर चीन की घरेलू अर्थव्यवस्था में प्रवेश करेंगे। डॉलर की सप्लाई बढ़ेगी, डॉलर का दाम टूटेगा और युआन का दाम चढे़गा। इसलिए अगले समय में युआन का दाम स्थाई रूप से चढ़ने की संभावना है।

 

प्रथम दृष्ट्या यह भारत के लिए सुखद होगा। हमारे घरेलू उद्यागों को चीन से आयात किए गए सस्ते माल के आयात की मार से राहत मिलेगी। हमारे निर्यातकों को विश्व बाजार में चीन के सस्ते माल से स्पर्धा नहीं करनी होगी, परंतु मेरा अनुमान है कि यह लाभ क्षणिक होगा। कारण यह कि चीन की मुद्रा का मूल्य बढ़ने के साथ-चीन में बना माल विश्व बाजार में महंगा हो जाएगा, परंतु उसी माल को सप्लाई करने वाले दूसरे तमाम देश हैं जैसे बांग्लादेश द्वारा कपड़े, थाईलैंड द्वारा कार एवं दक्षिण कोरिया द्वारा इलेक्ट्रिक उपकरण विश्व बाजार में सप्लाई किए जा रहे हैं। चीन में निर्मित माल महंगा हो जाए तो भी इन दूसरे देशों में निर्मित माल सस्ता पड़ेगा।

 

हम सब इससे परिचित हैं कि चीन की फैक्ट्रियों द्वारा दूसरे देशों के सस्ते पुर्जे खरीदकर उन्हें असेंबल किया जाता है। चीन द्वारा निर्यात किए गए माल का मूल्य अंतत: खरीदे गए पुर्जे से निर्धारित होता है। पुर्र्जो का यह मूल्य पूर्ववत न्यून रहेगा। उदाहरण के लिए भिंडी की ढुलाई टाट की बोरी में की गई अथवा प्लास्टिक की बोरी में-इससे मंडी में भिंडी के मूल्य पर कम ही असर पड़ता है। इसी प्रकार थाइलैंड में बने पुर्जों का चीन के रास्ते निर्यात महंगे युआन के माध्यम से किया गया अथवा सस्ते युआन के माध्यम से, इससे अमेरिकी बाजार में माल के दाम पर कम ही असर पड़ेगा। अत: सच्चाई यह है कि हमें युआन के पुनर्मूल्यन से हर्षित नहीं होना चाहिए और सस्ते माल के उत्पादन के लिए सतत प्रयास करते रहना चाहिए।

Source: Jagran Yahoo

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