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क्या भाजपा किसी अनिष्टकारी शक्ति का सामना कर रही है? यह सवाल न केवल पार्टी के समर्थक और हमदर्द, बल्कि हाशिये पर बैठे वे लोग भी पूछ रहे हैं जो मानते हैं कि भाजपा को शक्तिशाली और प्रभावी विपक्ष बनने के लिए अपनी व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव लाने होंगे। राजनाथ सिंह की जगह नितिन गडकरी द्वारा पार्टी की कमान संभालने के बाद पिछले पांच महीने से भाजपा विपक्ष की भूमिका सही ढंग से निभा रही है। ऐसे में यह विश्वास पैदा होना स्वाभाविक था कि भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक उद्देश्यपरक और बिना बवाल के संपन्न होगी। किसी ने यह उम्मीद नहीं की थी कि पटना सत्र में भविष्य में चलने वाले संघर्ष को लेकर चमत्कारिक रणनीति बन जाएगी। फिर भी इस बात की उम्मीद जरूर की जा रही थी कि यह गडकरी की टीम के सदस्यों को राष्ट्रीय अपेक्षाओं से परिचित जरूर कराएगी।
पार्टी को इस पर मंथन करना चाहिए था कि झारखंड में वह बेवकूफ कैसे बन गई? इसके बजाय पटना में जो कुछ हुआ वह बड़ा अजीबोगरीब था। पिछले 12 साल से अनुकरणीय नजर आने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ संबंधों में बेवजह खटास पैदा हो गई। इसके बाद राम जेठमलानी को राज्यसभा का टिकट देने के आश्चर्यजनक फैसले पर मीडिया में मचे बवाल ने भाजपा की और छीछालेदर कर दी। जब तक यह जोरदार वकील आत्मघाती गोल न ठोंक लें तब तक यह प्रकरण हाशिये पर ही रहेगा, किंतु जनता दल और भाजपा के बीच बढ़ते तनाव के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। विधानसभा चुनाव में कुछ माह ही बाकी हैं, ऐसे में दोनों दलों के बीच इस मनमुटाव की परिणति या तो संबंध टूटने के रूप में सामने आएगी या फिर यह राजनीतिक असंगता का कारण बनेगी। दोनों ही स्थितियों में लाभ की स्थिति राजग के हाथ से फिसलकर लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के हाथ में चली जाएगी।
यह विश्वास करना कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एक खौफनाक विध्वंसक के रूप में उभरे हैं, स्थितियों का सरलीकरण करना होगा। मोदी को देश भर में अच्छा-खासा समर्थन हासिल है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा में एक बड़ा वर्ग मानता है कि तमाम अस्थायी व्यवस्थाएं खत्म होनी ही हैं। यह संभव है कि इन्हीं में से कुछ तत्वों ने पटना बैठक को हिंदू हृदयसम्राट का झंडा फहराने का मंच बना दिया हो। नीतीश को भाजपा के आंतरिक घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया जताने की आवश्यकता नहीं थी। प्रचार में पिछले साल लुधियाना में नीतीश-मोदी के हाथ में हाथ लिए हुए फोटो का पुनर्प्रकाशन इतना बड़ा अपराध नहीं है कि एक मुख्यमंत्री दूसरे मुख्यमंत्री का बहिष्कार कर दे।
फिर भी, मात्र यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि नीतीश ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को पटरी से उतार दिया। बिहार के मुख्यमंत्री ऐसी भाजपा चाहते हैं, जिसके साथ वह विचारधारात्मक स्तर पर सामंजस्य बैठा सकें। नीतीश खुद को मीडिया द्वारा गैरकांग्रेसी पंथनिरपेक्षता का अलंबरदार दिखाए जाने पर विश्वास करने के दोषी हैं। लगता है कि नरेंद्र मोदी को बिहार भाजपा के एक वर्ग ने नीतीश को किनारे करने के लिए इस्तेमाल किया है। इस चतुराई के पीछे जातिगत समीकरण भी काम कर रहे हैं, किंतु कंधमाल प्रकरण में मुसीबतें खड़ी करने वालों को उड़ीसा हादसे के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उत्तेजित नवीन पटनायक ने भाजपा के साथ 11 साल का गठबंधन तोड़ दिया, क्योंकि उन्हें लगता था कि छोटा साझेदार वोट बटोरने की स्थिति में नहीं रह गया है।
अगर नीतीश को लगने लगा है कि भाजपा अपना वोट बैंक कायम नहीं रख पाएगी और न ही क्षतिपूरक समर्थन जुटाने में सक्षम होगी तो उनके पास राजग को झटका देने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। भाजपा का विश्वास बिल्कुल सही है कि बिना एक-दूसरे का सम्मान किए कोई भी गठबंधन कायम नहीं रह सकता। नीतीश ने भाजपा के स्वाभिमान को चोट पहुंचाई है इसलिए पार्टी को अपनी शक्ति जुटाने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। सिद्धांत रूप में इस प्रकार की जैसे को तैसा की नीति अपवादहीन है, किंतु इसमें दो समस्याएं हैं। पहली, बिहार में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और भाजपा तथा जनता दल में से कोई भी इसे हारना नहीं चाहता। दूसरे, 2004 के बाद से भाजपा गठबंधन सहयोगियों को खोती जा रही है। शिवसेना, अकाली दल और जनता दल (यू) समेत सभी सहयोगियों से भाजपा के संबंध तनावपूर्ण हैं। अगर नीतीश अलग राह पकड़ लेते हैं तो इससे भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर भारी नुकसान होगा।
2004 की हार के बाद से भाजपा में एक तबका ‘एकला चलो’ की नीति पर जोर दे रहा है। यह रुख इस पर आधारित है कि हिंदुओं के लिए लड़ने वाली छवि से भाजपा को अतिरिक्त समर्थन हासिल हो जाएगा। फिलहाल तो ऐसा कोई साक्ष्य नजर नहीं आता जो यह सिद्ध कर सके कि भारत अयोध्या विवाद के चरमोत्कर्ष वाली मनोदशा की ओर जा रहा है। न ही ऐसा कोई संकेत मिल रहा है कि भाजपा के पास कोई ऐसा विचार है, जिससे वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को निखार सके। भाजपा की त्रासदी यह है कि वह इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। परिणाम यह है कि राज्य सरकारों के सफल संचालन और राष्ट्रीय विपक्ष के रूप में अच्छे प्रदर्शन को उसकी ऊटपटांग बयानबाजी पलीता लगा देती है, जिससे न तो इसका प्रभाव बढ़ता है और न ही सहयोगी राहत की सांस ले पाते हैं।
Source: Jagran Yahoo
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