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पिछले आम चुनाव में करारी हार के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्टों ने आतरिक सुधार कार्यक्रम हाथ में लिया है। सोच है कि पार्टी में गैर कम्युनिस्ट तत्वों के प्रवेश के कारण धरातल पर पार्टी की इमेज जनहितकारी नहीं रह गई है। पार्टी के हाईकमान का यह आकलन सही दिखता है, परंतु यह भी पूछना चाहिये कि गैर कम्युनिस्ट तत्वों का प्रवेश किन कारणों से हो पाया? बिना इस विवेचन के यह रोग दूर नहीं होगा। मरीज को दवा देने के पहले डाक्टर निर्णय लेता है कि रोग का मूल कारण क्या है?
मेरा मानना है कि मार्क्सवादियों की हार की जड़ें इनकी थ्योरी में हैं। इन सिद्धांतों को ठीक किए बगैर आतरिक सुधार व्यर्थ होगा। थ्योरी की मूल कमिया दूसरे रूप में सामने आएंगी, जैसे व्यक्ति गर्मी में रेशमी कुर्ता पहने और निर्णय दे कि बुनाई सघन है इसलिए गर्मी लग रही है। ऐसे में समस्या का समाधान नहीं होगा। हल्की बुनाई का रेशमी कुर्ता पहनने पर भी गर्मी लगेगी, क्योंकि गर्मी में रेशमी कपड़ा पहनने की थ्योरी गलत थी। अत: मार्क्सवादियों को कम्युनिस्ट थ्योरी के मूल बिंदुओं पर विचार करना चाहिए।
मार्क्सवादी पार्टी का वर्तमान क्षरण नंदीग्राम और सिंगुर में उद्योग लगाने के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण से प्रारंभ हुआ था। इस कार्यवाही के पीछे कम्युनिस्ट थ्योरी है, जिसमें बाजार को अनिष्टकारी माना जाता है। कार्ल मार्क्स ने निर्णय दिया था कि बाजार में मनुष्य का कच्चे माल की तरह उपयोग किया जाता है। श्रमिक के लिए श्रम करना दर्दनाक होता है, क्योंकि बने हुए माल से उसका भावनात्मक संबंध नहीं बनता है। गाव का व्यक्ति किसान के लिए हल बनाता है तो वह उसमें अपने प्राण आहूत करता है। उसके सामने ही किसान उसका उपयोग करता है, जिसे देखकर दोनों का मन लहलहाता है। इसके विपरीत बाजार में बेचे गए माल का उपयोग करने वाले व्यक्ति का जुड़ाव निर्माता से नहीं होता है अत: माल के उत्पादन में उसे सुख नहीं मिलता है।
मार्क्स ने ऐसे समाज की तस्वीर खींची थी जिसमें बाजार नहीं होगा, लोग अपने आनंद के लिए माल का उत्पादन करेंगे, निर्माता और उपभोक्ता के बीच भावनात्मक कड़ी बनी रहेगी और श्रम करना सुखदायक हो जाएगा। बाजार के इस विरोध के चलते मार्क्सवादियों ने पहले बंगाल से उद्योगों को भगाया। अस्सी और नब्बे के दशक में बंगाल के उद्यमियों का घेराव करना आम बात हो गई थी। बंगाल में रोजगार समाप्त हो गए। तब मार्क्सवादिय पलट गए और बड़े उद्योगों को ताबड़तोड़ आकर्षित करने में लग गए। अपनी पूर्व की नकारात्मक छवि को मिटाने के लिए उन्होंने भूमि अधिग्रहण को आक्रामक कदम उठाए। इससे बंगाली मतदाता रुष्ट हो गए।
अत: मार्क्सवादियों की वर्तमान हार के पीछे मार्क्स की बाजार-विरोधी थ्योरी है। इस थ्योरी में निर्माता के सुख को माल का उपयोग करने वाले से जोड़ा गया है, परंतु हम देखते हैं कि आर्टिस्ट को पेंटिंग बनाने में ही मजा आता है। पेंटिंग बिक गई, इतनी ही जानकारी उसके लिए पर्याप्त होती है। किसान गेहूं का उत्पादन करके प्रफुल्लित होता है, यद्यपि उसे पता नहींहोता कि रोटी कौन खाएगा। श्रमिक को यदि उसके स्वभाव के अनुकूल काम मिल जाए तो वह सुखी होता है। आर्टिस्ट को हल चलाने में लगा दिया जाए तो वह दुखी होगा और किसान को पेंटिंग करने के लिए ब्रश थमा दी जाए तो वह भी दुखी होगा। विशेष यह कि व्यक्ति को अपनी पसंद का कार्य ढूंढने में बाजार से मदद मिलती है। श्रमिक मन चाहा कार्य पकड़ सकता है। इसलिए मूल रूप से बाजार सुखदायी है। मार्क्स की इस सैद्धांतिक गलती के कारण मार्क्सवादी गड्ढे में गिर पड़े हैं।
मार्क्स ने बाजार का दूसरा दुर्गुण असमानता बताया था। बाजार में सक्षम लोग दूसरों को कुचल देते हैं। मार्क्स ने इस समस्या का रुचिकर समाधान बताया। उन्होंने कहा कि मशीन के उपयोग से इतना अधिक उत्पादन हो सकेगा कि माल का कहीं भी अभाव नहीं रहेगा। व्यक्ति को मनचाही खपत मिलेगी, परंतु इस सुखद स्थिति को बनाने के लिए कुछ समय तक श्रमिकों की तानाशाही को लागू करना होगा। श्रमिकों की पार्टी द्वारा पूंजीपतियों से जबरन सत्ता को छीन लिया जाएगा और उत्पादन को बढ़ाकर हर व्यक्ति को उसकी जरूरत के अनुरूप वितरित कर दिया जाएगा। इस सुहावने विचार में समस्या है कि श्रमिकों के तानाशाह वास्तव में संपूर्ण जनता को माल वितरित करेंगे और स्वयं उस पर कब्जा नहीं करेंगे, इस संभावना पर विचार नहीं किया गया। मैं मानता हूं कि मार्क्स, लेनिन और माओ तथा अपने देश में डागे, नंबूदरीपाद और चारू मजूमदार द्वारा स्थापित पार्टिया नेक नहीं रहीं। गाधी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे त्यागियों द्वारा स्थापित की गई पार्टिया आज धन और सत्ता लोलुप हो गई हैं। मार्क्सवादी भी पीछे नहीं हैं। खबर है कि बुद्धदेव भट्टाचार्य ने 1993 में ज्योति बसु की मंत्रिपरिषद को ‘चोरों की कैबिनेट’ कहकर बहिष्कार किया था। मार्क्सवादियों के वर्तमान सुधार कार्यक्रम के पीछे भी पार्टी का यही गिरता चरित्र है।
दूसरी पार्टिया जनहित को अपना उद्देश्य नहीं मानती हैं-केवल वोट हासिल करने के लिए जनहित का आडंबर करती हैं। उनका प्रयास रहता है कि अपने स्वार्थ को हासिल करते हुए गरीब को रोटी के दो टुकड़े डाल दो, परंतु मार्क्सवादी नेता इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते हैं। वे मानते हैं कि वे स्वयं ही नहीं, बल्कि संपूर्ण सरकारी तंत्र स्वार्थी नहीं है। इसलिये वे अर्थव्यवस्था के सरकारीकरण का पुरजोर समर्थन करते हैं। उनकी माग है कि अकुशल, लालफीताशाह एवं भ्रष्ट सार्वजनिक इकाइयों का विस्तार किया जाए, सरकारी विद्यालय जिसमें बच्चे फेल होकर अपना भविष्य गंवा देते हैं उन्हें अधिक धन दिया जाए और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिसमें आधे अनाज का रिसाव हो जाता है उसे ज्यादा अन्न उपलब्ध कराया जाए। शोषक सरकारी तंत्र को जनहितकारी मानने की थ्योरी की गड़बड़ी के कारण मार्क्सवादियों द्वारा गलत आर्थिक नीतियों का अनुमोदन किया जा रहा है और उनका जनाधार खिसकता जा रहा है।
एक प्रमुख अखबार ने लिखा है कि वामपंथी विचारधारा तब तक प्रासंगिक रहेगी जब तक देश में गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और असमानता रहेगी। यह स्थान वामपंथ के लिए सुरक्षित है, परंतु इस सुरक्षित कुर्सी पर बैठने के लिए वामपंथ को अपनी थ्योरी का नवीनीकरण करना होगा। बाजार का बहिष्कार करने के स्थान पर बाजार पर लगाम लगाने की कवायद करनी होगी। सरकारी तंत्र के विस्तार के स्थान पर ऐसी पालिसी की माग करनी होगी कि हल्के सरकारी तंत्र से भारी जनहित हासिल हो। वामपंथ को सैद्धांतिक संजीवनी की जरूरत है।
Source: Jagran Yahoo
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