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जिंदा होना बनाम जिंदा सा होना

संपादकीय ब्लॉग
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यह कटु सत्य है कि जिंदा होने और जिंदा सा होने में आकाश-पाताल का अंतर है। वैसे अपने देश में आम आदमी बहुसंख्यक में है, पर यहां सारी सुविधाएं, सारा राजनीतिक और शासकीय संरक्षण साधन-संपन्न वर्ग के लिए ही है। पिछले सप्ताह एक स्कूल में कुछ बच्चे खून बढ़ाने की दवाई खाने से बीमार हो गए। असली कारण यह था कि भूखे बच्चों ने जरूरत से ज्यादा दवाई खा ली। प्रश्न यह है कि जब पेट में एक सूखी रोटी भी नहीं गई तो दवाई हानि करेगी या लाभ?

 

भारत लगभग सवा अरब लोगों का देश है। स्वयं सरकार स्वीकार करती है कि देश के चालीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे है अर्थात देश के चालीस करोड़ से भी ज्यादा लोग अभी गरीब बनने के लिए हड्डी तोड़ मेहनत कर रहे है। यह भी सरकारी आकड़े है कि देश की जनता का केवल बारह प्रतिशत अर्थात 14 करोड़ लोग ही उच्च आय वर्ग के है। इसका सीधा अभिप्राय: यह है कि गरीब, निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग के ही लगभग पचास करोड़ भारतवासी हैं। सीधे शब्दों में यह कि गरीबी रेखा से नीचे के चालीस करोड़ भारतीय और गरीबी रेखा पार कर सफेदपोशी को पकड़ने की कोशिश में लगे लगभग साठ करोड़ भारतवासी आम आदमी है, इसलिए इनका कोई संरक्षक नहीं, अभिभावक नहीं, किंतु यह आम आदमी हर गली-बाजार में, नगर-गाव में देखा जा सकता है।

 

प्रात: चार बजे से ही कूड़े के ढेरों पर कागज, लिफाफे चुनते बच्चे, युवक और युवतिया भी इसी वर्ग से संबंध रखते है। सफेदपोशी की दौड़ में हाफता हुआ आम आदमी सस्ते राशन की दुकानों पर भी बड़ी संख्या में देखा जा सकता है। आम आदमी के जीवन को चलाने के लिए आटा-चीनी इस दुकान से गरीब को शायद पूरा न मिले, पर डिपो का मालिक अवश्य ही अमीर हो जाता है। इसी कारण पाच लीटर सस्ता तेल लेने के लिए ग्राहक को दस चक्कर भी लगाने पड़ सकते है। यही आम आदमी डीसी, एसएसपी या रेडक्रास दफ्तरों के बाहर लाइनों में खड़ा प्राय: दिखाई देता है। हाथ में प्रार्थनाओं से भरी वे चिट्ठिया रहती है जो किसी को पाच, दस रुपये देकर लिखवाई जाती है। पुलिस थानों के बाहर डरे-सहमे खड़े भारत के बहुत से आम बेटे-बेटिया देखे जा सकते है। यह लोग छोटे-मोटे अपराध करते है, इसलिए बड़ी गाली और मोटा डंडा खाते है। बड़े अपराधी करोड़ों-अरबों का घोटाला करके विशिष्टजन बन जाते है। इसी बल पर चुनावी जमघट में विधानसभा या संसद तक भी पहुच जाते है। अन्यथा उनके धनबल और बाजूबल से कुछ लोग सरकार में घुसपैठ कर अपने आका को संरक्षण प्रदान करते या करवाते है।

 

संक्षेप में यूं कहे कि हिंदुस्तान के अधिकतर वीओपी अर्थात बहुत साधारण जन अंगूठा लगाते है, बंधुआ मजदूर बनते है, कभी-कभी तो आटे, तेल के झझट में बच्चों को भी बेच देते है, बिना दवाई उपचार के मर जाते है। इसीलिए जेहन में आता है-आम आदमी बस जिंदा-सा है और विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी अब शर्मिदा सा ही है। यहां जनता के वोटों से सरकार बनती जरूर है, पर अब न तो यह जनता के लिए है और न ही जनता के द्वारा चलती है। यह भी सच है कि भारत के भारी-भरकम लोकतंत्र की सवारी आम आदमियों के कंधों पर ही चलती है।

 

देश के कर्णधार, समाजशास्त्री, बुद्धिजीवी क्या कभी भी यह चिंतन नहीं करते कि आधा देश वोट क्यों नहीं डालता? लोकतात्रिक प्रक्रिया से नेता बनने वाले शासकों से जन साधारण का भरोसा क्यों उठ गया? लोकतात्रिक प्रक्रिया से शासक बनने वालों की आख में तिनका भी पड़ जाए तो उनका इलाज अमेरिका में होता है, पर आम आदमी भयानक बीमारी से ग्रस्त होकर भी केवल उन्हीं साधनों पर निर्भर करता है जो सरकारी अस्पतालों में मिल जाते है। निश्चित ही धन-बल संपन्न कुछ ताकत वाले लोकतंत्र की प्रक्रिया का नाटक रचाते हुए अपने पुत्र-पौत्रों को सत्ता के सिंहासन तक पहुचाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर देते है। वैसे यह मानना ही पड़ेगा कि अभी भी हिदुस्तान का लोकतंत्र दमदार है और आम आदमी के कंधे ही इसकी पालकी उठाने की क्षमता रखते है। हमारा लोकतंत्र शासक बनाता और गिराता है। जो सत्तापति आम आदमी को भूल चुके है उन्हे आम आदमी धूल भी चटा देता है। सिंहासन पर चढ़ाता है तो बटन के करट से उतार भी देता है।

Source: Jagran Yahoo

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