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वैश्विक तापन का भयावह संकट

संपादकीय ब्लॉग
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ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे पर पूरी दुनिया को पसीना छूट रहा है. बीते सौ सालों में पृथ्वी की सतह का तापमान एक डिग्री बढ़ गया है. इस सदी में तापमान में और भी तेजी से वृद्धि होने की आशंका है. तापमान में इस वृद्धि से विश्व की खाद्य सुरक्षा पर घातक प्रभाव पड़ेगा. यदि वैश्विक ताप में वृद्धि पर अंकुश नहीं लगाया गया तो खाद्य पदार्थों का वैश्विक उत्पादन 30 प्रतिशत तक घट सकता है.

 

कृषि उपज पर पड़ने वाले प्रभावों को भारत के संदर्भ में आसानी से समझा जा सकता है. गेहूं व धान भारत की प्रमुख फसलें हैं. देश में कुल कृषि उपज में 42.5 प्रतिशत हिस्सा धान का है. चूंकि जलवायु परिवर्तन से वर्षा अनियमित हो रही है इसलिए वर्षा आधारित खेती होने के कारण धान की पैदावार पर सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ेगा. दो डिग्री सेंटीग्रेट तापमान बढ़ने से धान का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 75 क्विंटल कम हो जाएगा. भारत का औसत धान उत्पादन 900 लाख टन है. तापमान की वर्तमान वृद्धि दर के आधार पर धान के उत्पादन में 2020 तक 6.7 प्रतिशत, 2050 तक 15.1 प्रतिशत और 2080 तक 28.2 प्रतिशत की कमी आने की आशंका है.

 

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन की 2009 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक तापमान में प्रति डिग्री सेल्सियस की बढ़त के साथ भारत में गेहूं की उपज दर में प्रति वर्ष 60 लाख टन की कमी आएगी. वर्तमान कीमतों के आधार पर आर्थिक नुकसान की गणना करें तो प्रति वर्ष करीब सात हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान होगा. वर्तमान गति से तापमान बढ़ता रहा तो गेहूं के उत्पादन में 2020 तक 5.2 प्रतिशत, 2050 तक 15.6 प्रतिशत और 2080 तक 31.1 प्रतिशत की कमी आने की आशंका है. इसी तरह की गिरावट अन्य फसलों में भी आ सकती है.

 

अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने विश्व स्तर पर जलवायु परिर्वतन की वजह से खाद्य पदार्थों के उत्पादन और उनकी कीमतों पर पड़ने वाले प्रभावों पर एक विस्तृत अध्ययन किया है. इसके मुताबिक जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव से 2050 तक गेहूं की उत्पादकता में 50 प्रतिशत, चावल में 17 प्रतिशत और मक्के की उत्पादकता में 6 प्रतिशत की कमी आएगी. परिणामस्वरूप इन कृषि उत्पादों की कीमतें आसमान छूने लगेंगी. अध्ययन के मुताबिक इन कृषि उपजों की कीमतों में 180 प्रतिशत से 194 प्रतिशत तक का इजाफा होगा. इस दौरान गेहूं की कीमत बिना जलवायु परिवर्तन के 40 प्रतिशत, चावल की कीमत 60 प्रतिशत व मक्का की कीमत 30 प्रतिशत बढ़ जाएगी. जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बढ़ी महंगाई से आम आदमी के उपभोग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना निश्चित है.

 

आशका है कि कीमतें बढ़ने से 2050 तक अनाज उपभोग 50 प्रतिशत तक घट सकता है. इस आधार पर कैलोरी उपलब्धता में 15 प्रतिशत की गिरावट आएगी. रिपोर्ट यह भी कहती है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा प्रभाव दक्षिण एशियाई देशों पर पड़ेगा, जिससे इस क्षेत्र में रह रहे 1.6 अरब लोगों की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी और संयुक्त राष्ट्र के दुनिया से भूख और कुपोषण मिटाने के प्रयास अप्रभावी हो जाएंगे.

 

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को न्यूनतम कैसे किया जाए. आईएफपीआरआई की रिपोर्ट का आकलन है कि इसके लिए दक्षिण एशिया में कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए 1.5 अरब डालर के अतिरिक्त वार्षिक निवेश की जरूरत पड़ेगी. वैश्विक स्तर पर इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सात अरब डालर के निवेश की आवश्यकता पड़ेगी, जबकि खाद्य एवं कृषि संगठन पहले ही कह चुका है कि 2050 में दुनिया की पूरी आबादी को भरपेट भोजन के लिए खाद्यान्न उत्पादन को 70 प्रतिशत बढ़ाने की जरूरत होगी. खासकर दुनिया के दो विशालतम उपभोक्ता देशों भारत व चीन को कम से कम 29 अरब डालर निवेश करने की आवश्यकता है.

 

जलवायु परिवर्तन से खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ने वाली है. इससे बचने के लिए कृषि में भारी निवेश और पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना होगा. जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मसला है जिसके लिए निर्विवाद रूप से सबसे ज्यादा विकसित देश जिम्मेदार हैं. इसलिए पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने की पहली जिम्मेदारी विकसित देशों की ही बनती है. इसकी भरपाई तभी हो सकती है जब विकसित देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक निश्चित हिस्सा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने पर खर्च करें.

Source: Jagran Yahoo

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