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आभासी दुनिया यानी वर्चुअल वर्ल्ड का सम्मोहन बच्चों और युवाओं को तेजी से अपनी गिरफ्त में ले रहा है. हाल ही में ग्रेट ब्रिटेन में किए गए सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकला है कि ब्रिटेनवासियों को वे वर्चुअल सुख अधिक प्यारे हैं, जो इंटरनेट की सोशल नेटवर्किग से प्राप्त होते हैं. अब वहा मां-बाप से भी बच्चों का संवाद इंटरनेट के जरिये ही होता है. उनकी सामाजिक दुनिया इंटरनेट तक सिमट कर रह गई है. भारत में भी इंटरनेट की आभासी दुनिया ने सामाजिक सबंधों के प्रत्यक्ष संवाद को घुन की तरह चाटना शुरू कर दिया है. मुबंई में ऐसे कई इंटरनेट एडिक्टेड क्लीनिक की शुरुआत भी हो गई है, जहा दर्जनों मां-बाप अपने इंटरनेट व्यसनी बच्चों को लेकर ऐसे क्लीनिक पर लगातार पहुंच रहे हैं. इंटरनेट प्रयोग करने के मामले में भारत आज एशिया में तीसरा और विश्व में चौथा देश है. साथ ही इंटरनेट प्रयोग करने वाली 85 फीसदी आबादी यहा 14 से 40 वर्ष के बीच है. यह वह वर्ग है, जो नेट सर्च, ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर व आरकुट के जरिए समाज के वास्तविक संबंधों से धीरे-धीरे कट रहा है.
सामाजिक तथ्य बताते हैं कि आज कंप्यूटर और इंटरनेट की आभासी दुनिया बच्चों में परिवार, स्कूल व क्रीडा समूह जैसी प्राथमिक संस्थाओं की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न लगा रही है. पिछले दो दशकों से लगातार कंप्यूटर व इंटरनेट सूचनाओं की नई नेटवर्क सोसाइटी गढ़ रहें हैं. यह वह सोसाइटी है, जिसमें पारस्परिक संवाद के लिए दैहिक उपस्थिति आवश्यक नहीं है. निश्चित ही सूचनाओं के इस देहविहीन समाज में आमजन के समक्ष इन यक्ष प्रश्नों का उठना स्वाभाविक ही है कि इस इंटरनेट उन्मुख नेटवर्क यानी नेटीजन सोसाइटी में हमारे फेस-टू-फेस संवाद बनाने वाले रोल माडल दम क्यों तोड़ रहे हैं? क्यों यूटोपियन सीरियल, फेसबुक, ट्विटर और आरकुट जैसी वेबसाइट्स के सामने हमारे मस्तिष्क को तरोताजा रखने वाली स्वस्थ्य क्रियाएं हमारे प्रत्यक्ष सामाजिक जीवन से नदारद हो रहीं हैं? क्यों इस प्रकार का अस्वस्थ्य संदेश देने वाली वेबसाइटें बच्चों और युवाओं के वास्तविक संसार को नष्ट कर रहीं हैं? विद्यालयों में पठन-पाठन की क्रिया और शिक्षक की तुलना में इंटरनेट की सोशल वेबसाइटों से संवाद प्रभावी क्यों हो रहा है? आभासी दुनिया की नेटीजन सोसाइटी के विकास के इस संक्रमणकाल में इन प्रश्नों के उत्तर खोजना जरूरी है.
कहना न होगा कि यह दौर सूचना क्राति का है. निश्चित ही सूचनाओं के तकनीकी संवाद ने परिवार व उसकी सामूहिकता को विखंडित करके बचपन को सबसे अधिक प्रभावित किया है. दादा-दादी, नाना-नानी की बाहों से लिपटकर कहानिया सुनने वाला बचपन अब कंप्यूटर, इंटरनेट, टीवी व वीडियो गेम जैसे संचार माध्यमों के बीच की मशीनी दुनियां के साथ विकसित हो रहा है. उसके इस मनो-शारीरिक विकास में दैहिक समाज नदारद है. आज आर्थिक दबावों के समक्ष मा-बाप को इतनी फुरसत हीं नहीं है, जो वह संतान को बता सके कि समाज का उसके जीवन में क्या महत्व है तथा उसके सामाजिक जीवन को चयन करने की दिशा क्या होगी. बच्चों के जीवन में संस्कृति और सास्कृतिक मूल्यों की सनातनधर्मिता की सीख देने वाले परिवार और स्कूल तक उनके बचपन से दूर हो रहे हैं. एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि परिवारों से बड़े-बूढ़े तो निकाल दिए गए हैं और मा-बाप भी अब बच्चों के बचपन से अनुपस्थित हो रहे हैं. ऐसे अकेले वातावरण में संचार माध्यम ही ऐसे माध्यम बचते हैं, जिनसे बच्चे अपन आभासी मनोरंजन की चीजों के चयन के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं.
कंप्यूटर, इंटरनेट, वीडियो गेम्स, फिल्में व काल्पनिक उपन्यासों की वर्चुअल दुनिया की विशेषता यह है कि ये माध्यम बच्चों के सामूहिक व मानवीय संवेदनाओं के पक्ष को गायब करके निहायत काल्पनिक, स्वकेंद्रित व रोमाचक उत्तेजना देने वाले पक्ष को प्रभावी बना देते हैं. बच्चों के समाजीकरण करने वाले परिवार व स्कूल जैसी प्राथमिक संस्थाएं भी आज बाजारवाद की गिरफ्त में हैं, इसलिए बच्चे भी सास्कृतिक शून्यता के दौर से गुजर रहे हैं. यही कारण है कि संचार माध्यमों द्वारा बच्चों के विवेक हरण व चेतना के दमन का कार्य करते हुए उनके दैहिक जीवन को रोमाचक व आभासी बना रहे हैं. बच्चों के जीवन में रोमांचित उत्तेजना पैदा करने वाले ये संचार के साधन ही उनके लिए सच्चे मित्र और रोल माडल का कार्य रहे हैं, जो उन्हें भौतिक देह की दुनिया से अलग करते हुए उनके जीवन में आभासी सुख की अनुभूति करा रहे हैं.
Source: Jagran Yahoo
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