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पिग्स देशों की बदहाली से मंदी के पुनरागमन का भय

संपादकीय ब्लॉग
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चार्वाक पद्धति यानी ऋण लेकर घी पीने की बात से लगभग सभी वाकिफ होंगे. यह सिद्धांत तो भारत की देन है किंतु यहॉ इसे कभी व्यवहार में लाना ठीक नहीं समझा गया. लेकिन यही तरीका अपनाकर यूरोप के कुछ देश आज बदहाली की कगार पर पहुंच गए हैं. अब एक भय यह पैदा हो गया है कि कहीं विश्व पुनः आर्थिक मंदी की जाल में ना फंस जाए.

 

आज वित्तीय संकट से जूझ रहा ग्रीस पिछले कई वर्षो से आर्थिक तरक्की के नए-नए कीर्तिमान बना रहा था, लेकिन 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी ने ग्रीस के दो सबसे बड़े उद्योगों की कमर तोड़ दी. इसके बावजूद ऊंची विकास दर के मोह में पड़ी सरकार सस्ते कर्ज के भरोसे आर्थिक प्रगति की राह चलती रही. इससे सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ता गया. घाटा बढ़ने के बावजूद ग्रीस अपना सच दुनिया से छिपाता रहा.

 

दिसंबर 2009 में यह कड़वा सच उजागर हुआ कि ग्रीस ने 216 अरब यूरो का कर्ज ले रखा है, जो उसके जीडीपी का 120 फीसदी है. ग्रीस की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि उसके बाडों में 70 प्रतिशत निवेश विदेशी है. जब हालात बेहतर थे तो बाड पर ब्याज कम देना पड़ता था, लेकिन अब यह 15 प्रतिशत तक पहुंच चुका है. इसी को देखते हुए क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने बाडों की रेटिंग घटाकर उन्हें जंक करार दिया.

 

ग्रीस में गहराते कर्ज संकट ने यूरो के भारी अवमूल्यन और यूरो जोन के कई देशों में कर्ज संकट गहराने का मार्ग प्रशस्त कर दिया. अब यूरोपीय संघ के देशों को यूरो के प्रति पुराने विश्वास को बहाल करने के लिए आगे आना पड़ा. यद्यपि यूरो जोन के कुल आर्थिक उत्पादन में ग्रीस की हिस्सेदारी मात्र 2.5 फीसदी है, लेकिन इसकी चरमराती हालत ने पूरे क्षेत्र को डरा दिया है. ऐसे में ग्रीस की मदद करना यूरोप की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक तरह से मजबूरी बन गई.

 

यूरो जोन की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी है और ग्रीस को मदद में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उसी की होगी. यही कारण है कि ग्रीस को बेलआउट देने के सवाल पर जर्मनी में तीखा विरोध हो रहा है. इसके बावजूद आईएमएफ व यूरोपीय संघ के 16 देशों ने 110 अरब यूरो के राहत पैकेज को मंजूरी दी. यह राहत राशि तीन साल के लिए दी जाएगी, लेकिन इस राशि को पाने के लिए यूनान को अपनी तमाम कल्याणकारी योजनाएं बंद करनी पड़ेंगी. इसके साथ वैल्यू एडेड टैक्स और ईधन व शराब पर शुल्क में भारी वृद्धि की जाएगी. वित्तीय सहायता के बदले में यूनानवासियों को तीन साल में अपने खर्च में 30 अरब यूरो यानी 40 अरब डालर की कटौती करनी पड़ेगी.

 

दरअसल, ताजे संकट की पृष्ठभूमि तभी तैयार हो गई थी, जब तय मानकों में ढील देकर पिग्स देशों को यूरो जोन में शामिल किया गया. वर्ष 2000 में यूरो जोन में शामिल होने वाले 16 देशों के लिए वित्तीय अनुशासन का मानदंड बनाया गया था, लेकिन दक्षिण यूरोप के कम विकसित देशों को इसमें छूट दी गई थी. यूरो जोन में शामिल देशों को एक ऐसी अर्थव्यवस्था मिली, जिसमें मुद्रास्फीति की कोई समस्या नहीं थी और बैंकों से सस्ती ब्याज दरों पर कर्ज मिलने लगा. यहीं से कर्ज लेकर घी पीने की शुरुआत हुई जिसमें ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल अग्रणी रहे और आज वही गहरे संकट में हैं.

 

1998-99 का दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का संकट हो या वैश्विक आर्थिक मंदी या ग्रीस का ताजा संकट, इन सभी वित्तीय संकटों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सरकारें बाजार की पकड़ में हैं, न कि बाजार सरकार की पकड़ में. तभी तो बाजार की शक्तियां लाभ का निजीकरण और घाटे का सार्वजनिकीकरण करने में सफल हो जाती हैं. दरअसल, आज की दुनिया में सत्ता की कुर्सियों पर बैठे लोगों से ज्यादा प्रभावी बैंक, निवेशक और कारोबारी हैं. वित्तीय बाजार में नियमन की कड़िया शिथिल हुई हैं. विदेशी विनिमय दरों का नियंत्रण कम हुआ है, जिससे अंतरराष्ट्रीय पूंजी प्रवाह कई गुना बढ़ गया.

 

यह आवारा पूंजी मुनाफा कमाने के लिए पूरी दुनिया में अवसर तलाशती रहती है. तभी तो यूरो जोन में निवेश की कम संभावनाओं और अमेरिका में जोखिम के कारण निवेशक अब भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं का रुख कर रहे हैं. यही कारण है कि इन देशों की मुद्राएं मजबूत हो रही हैं. ग्रीस संकट ने भारत को कई सबक दिए हैं. पहला, भारत सार्वजनिक उधारी को इतना न बढ़ाए कि उसे संभालना ही मुश्किल हो जाए.

 

इस समय केंद्र व राज्यों के सार्वजनिक कर्ज और जीडीपी का अनुपात 82 प्रतिशत तक पहुंच गया है और इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है. अत: भारत को भी सख्त वित्तीय अनुशासन अपनाना होगा. वैसे भी 13वें वित्त आयोग ने 2014-15 तक सार्वजनिक उधारी और जीडीपी के अनुपात को घटाकर 68 फीसदी पर लाने की सिफारिश की है. दूसरा, बाजार में बढ़ते धन प्रवाह पर सतर्क नजर रखनी होगी ताकि आवारा पूंजी बाजार में उथल-पुथल न मचा पाए.

Source: Jagran Yahoo

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