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सामना-ए-नक्सलवाद बनाम वनवासियों का उद्धार

संपादकीय ब्लॉग
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माओवाद और नक्सलवाद की आज के समय में कितनी प्रासंगिकता रह गयी है? खूनी क्रांतियां क्या कभी जनता द्वारा स्वीकार्य हो सकती हैं? इन क्रांतियों का वैचारिक खोखलापन क्या कभी किसी समाधान को तलाश सकता है? भारत भूमि पर किस प्रकार के विचारों और कृत्यों को अंजाम दिए जाने की जरूरत है जिससे समृद्धि और खुशहाली की लहर दौड़े? पूर्व सैन्य अधिकारी आर विक्रम सिंह ने इस आलेख में इसी ज्वलंत प्रश्न को उठाया है.

 

छत्तीसगढ़, झारखंड में जारी हिंसक उफान में किसी ने माओवाद के प्रणेता कानु सान्याल की आत्महत्या के निहितार्थ तलाशने की कोशिश नहीं की. कोई वैचारिक बहस नहीं छिड़ी. हमारी राजनीति में विचारों का अभाव इतना घना है कि खूनी क्रांति की अवधारणा से कानु सान्याल के मोहभंग पर कोई वैचारिक हमला नहीं बोला गया. अगर प्रणेता ही क्रांतियों से किनारा कर लें तो इससे क्रांतियों का वैचारिक खोखलापन खुलकर सामने दिखने लगता है.
यह देश माओ से घृणा करता है इसलिए यहां माओ का नाम लेकर सत्ता में आने की सोच रखना ही आश्चर्यजनक है. इस अभियान को माओवादी, नक्सल आदोलन भाग-दो का नाम भी दे सकते थे, लेकिन उन्होंने माओवाद का नाम चुना. इसका उद्देश्य वैचारिक नहीं है. शायद बाहरी सहयोग की उम्मीद से नक्सलवाद का माओवाद नामकरण किया गया हो. क्रांतिया जहां भी हुई हैं उनमें बाहरी सहयोग की भूमिकाएं अवश्य रही हैं. सोवियत संघ के समापन के बाद क्रांतियो के एक्सपोर्ट की एकमात्र आशा चीन से ही हो सकती है.

 

सवाल यह बनता है कि माओवादियों की गणना में उस ‘विदेशी’ दखल का उपयुक्त समय कब आएगा? इसके लिए माओवादी विद्रोह के उस लक्ष्य तक पहुंचने की जरूरत होगी, जिसके बाद वह एक क्रातिकारी सरकार के गठन जैसी घोषणा कर सके. आश्चर्य है कि विदेशी भूमि पर उपजे बीते वक्त के विचारों से वे यहां क्रांति के सपने देख रहे हैं. विचार कोई टेक्नोलाजी नहीं है. उधार के विचारों से क्रांतिया नहीं होती, इसका गवाह इतिहास है. वक्त के साथ मा‌र्क्सवाद और लेनिनवाद में भी फर्क दिखता है. लेनिनवाद और माओवाद में तो जमीन-आसमान का फर्क है.

 

विकासशून्यता एवं गरीबी क्रांतियों के कारक नहीं होते. माओवादियों के आतंक से प्रभावित राज्यों में विकास कार्य नहीं हो पा रहा है. प्रशासन उनकी बात मानने पर मजबूर हुआ जा रहा है. न्याय तो पहले से ही वे अपनी जन अदालतों में दे रहे हैं. इसलिए अब उनका युद्ध राज्य की अंतिम निशानी पुलिस से है. वे पुलिस एवं सशस्त्र बलों का मनोबल तोड़ने का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे. दंतेवाड़ा का उदाहरण हमारे सामने है. प्रश्न यह है कि क्या पूर्णरूप से प्रतिबद्ध एवं प्रेरित संगठन की शक्ति का मुकाबला करने की प्रतिबद्धता हमारे वर्तमान राजनीतिक, प्रशासनिक नेतृत्व में है? साथ ही 60 वर्षों में लोकतंत्र का जो स्वरूप हमारे यहां उभरा है क्या वैचारिक रूप से हम इस इन्कलाबी सब्जबाग का मुकाबला कर सकेंगे? दुर्भाग्य यह भी है कि लोकतंत्र ने विचारों की कोई ऐसी ऊर्जा भी प्रवाहित नहीं की, जिससे माओवाद जैसे कालातीत विचारों को रोका जा सके. कटते कगार पर बैठी सत्ताएं भी आने वाले वक्त से बेखबर ऐसे माहौल में अलग-अलग भाषाएं बोलती हैं.

 

माओवाद के भारतीय नियंता अपनी गणनाओं में एक गलती जरूर कर गए. उन्हें उम्मीद न रही होगी कि उदारीकरण के बाद भारत आर्थिक महाशक्ति बनने की दिशा में चल निकलेगा. इसके कारण राष्ट्र के आर्थिक संसाधनों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. सन 1990 से पहले के भारत में समस्याओं के समाधान की राह नहीं सूझती थी. इस आर्थिक समृद्धि ने आदिवासी राज्यों के विकास की गति में गुणात्मक परिवर्तन करने का बड़ा अवसर उपलब्ध करा दिया है. वे जिस गरीब भारत में क्रांति करने चले थे, वह अब वैसा गरीब भी नहीं रहा. इसलिए विकास का विरोध उनकी मजबूरी बन गया है.

 

आदिवासी राज्यों के अविकसित राजनीतिक परिदृश्य में जन अपेक्षाओं और सत्ता के बीच की दूरी का लाभ माओवादियों को मिल रहा है. राजनीतिक परिवारवाद के मूल में सामंतवाद है. इससे अभी भारत का पीछा नहीं छूटा है. आशका है कि सत्ता पर जहां राजनीतिक घरानों और घनाढ्य वर्ग का एकाधिकार है, वहां की परिस्थितियों का लाभ भी इन्हें मिलेगा. पिछले 60 वषरें में वनवासी एवं अभावग्रस्त समाज की राजनीतिक अभिव्यक्ति का लोकतात्रिक मार्ग बंद हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण रहा है. जरूरी है कि धरातल पर उतरकर आम जिंदगी को स्पर्श किया जाए. सशस्त्र बल समाधान नहीं है, उनका दायित्व यह बनता है कि विकास के कायरें, अभियानों को माओवादियों द्वारा किसी भी रूप में बाधित न होने दें.

 

राष्ट्रों के विकास में त्रासदियों का भी अपना योगदान होता है. माओवाद का पुनर्जन्म एक त्रासदी है, जो व्यवस्था के मोहभंग से उपजी है. जाति, धर्म एवं क्षेत्रवाद प्रभावित लोकतंत्र आर्थिक एवं सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अपने दायित्वों की पूर्ति नहीं कर पा रहा है. इसलिए इन अविकसित क्षेत्रों में राजनीतिक विकल्पों की तलाश की आधारभूमि बन रही है.

 

साम्यवाद का विकल्प काफी लंबे समय तक विश्व आकाश पर धूमकेतु के समान छाया रहा. 20वीं सदी के आर्थिक विकास में साम्यवाद के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता. मानवीय शोषण का मुकाबला करने, कामगारों की आवाज बनने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इसने पूंजीवाद को पटखनी देकर उसे अपना शोषक चेहरा बदलने पर मजबूर किया है. उसी तरह माओवाद अपनी असफलताओं में भी भारतीय राजनीति को बेहतर और जनोन्मुख बनाने में योगदान कर सकता है. सत्तर के दशक में पुलिस दमन द्वारा नक्सलवाद का जवाब दिया गया. जहां तक नक्सलवाद भाग-2 का सवाल है आदिवासी समाज के विकास के लिये सशक्त राष्ट्रीय जन अभियान ही इसका जवाब है.

Source: Jagran Yahoo

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