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शून्य को भरने की जरूरत

संपादकीय ब्लॉग
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इस समय माओवादियों के सवाल पर जनमत विभाजित है. ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो माओवादी रास्ते का समर्थन करते हैं. उनका कहना है कि आदिवासियों पर जिस तरह जुल्म ढाया जा रहा है और कुछ कारपोरेट घरानों के लिए उनके हितों को कुरबान किया जा रहा है, उसे देखते हुए माओवाद का विरोध कैसे किया जा सकता है? अगर आदिवासी माओवादियों का साथ न दें, तो क्या करें? आज जब सरकार ने आदिवासियों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है, तो हम सभी को आदिवासियों का साथ देना चाहिए. यह वर्ग मीडिया में बहुत मुखर है. दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनका कहना है कि माओवादी हिंसा का सामना हिंसा से करने के अलावा सरकार के पास रास्ता ही क्या है? इस समूह में सभी राजनीतिक दल शामिल हैं.

 

दंतेवाड़ा की घटना के बाद विपक्षी दलों को, अपनी परंपरा की अनुसार, गृह मंत्री से इस्तीफा मांगना चाहिए था. यह अजीबोगरीब दृश्य था कि गृह मंत्री तो इस्तीफा देने के लिए तैयार थे, पर विपक्षी दल उन्हें मना रहे थे कि वे पद न छोड़ें.

 

फिलहाल मुद्दे की बात यह नहीं है किं माओवादी ठीक कर रहे हैं या नहीं. जब सरकार ने उन पर आक्रमण करना शुरू नहीं किया था, तब भी माओवादियों ने कुछ खास सफलता अर्जित नहीं की थी. उन्होंने बहुत-से गावों को मुक्ताचल में बदल दिया और वहां कोई लोकतांत्रिक समाज नहीं स्थापित किया, बल्कि अपनी तानाशाही कायम की. इससे भविष्य की क्रांति को क्या मदद मिलेगी, समझ में आना मुश्किल है.

 

क्रांति के लिए जिस व्यापक जन संगठन और जन संघर्ष की जरूरत है, यह रास्ता उधर नहीं ले जाता. माओवादियों की जंगल-आधारित रणनीति से भारत के जनसाधारण में उम्मीद की कोई लहर फैल गई हो, ऐसा भी नहीं है. इसलिए चिंता का तात्कालिक विषय यह है कि जिस युद्ध की आशका है, उसे कैसे रोका जाए?

 

माओवाद के समर्थक लेखक और पत्रकार आदिवासियों की बड़े पैमाने पर हत्या का डर तो बार-बार दिखा रहे हैं, पर इस जन हत्या को रोकने का कोई तरीका नहीं सुझा रहे हैं. भारत सरकार और राज्य सरकारों का जो चरित्र है, उसे देखते हुए यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे कोई तर्क या विवेक की बात सुनेंगे. सरकारी प्रतिष्ठान अपने ही नागरिकों का जनसंहार करने पर आमादा है. उससे यह मांग करना बेअसर होगा कि वह माओवादियों से संघर्ष करना ही है, तो यह संघर्ष अहिंसक तरीके से या न्यूनतम हिंसा की नीति पर आधारित हो.

 

जिस तरह माओवादियों को किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है, उसी तरह सरकार को भी किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है. ऐसे हालात में माओवादियों से ही यह निवेदन किया जा सकता है कि अब उन्हें जन संघर्ष में हिंसा के उपयोग की अपनी पुरानी रणनीति पर फिर से विचार करना चाहिए. अब दंतेवाड़ा हत्याकाड के बाद स्थिति बदल चुकी है. कहा जा सकता है, यह माओवाद और सरकार के बीच चल रहे युद्ध का एक निर्णायक मोड़ है. हिंसा और प्रतिहिंसा का खेल हमेशा उन पर भारी पड़ता है जो सामरिक दृष्टि से कमजोर हैं. वे सीमित हिंसा कर हमेशा असीमित हिंसा को आमंत्रित करते हैं.

 

सरकार का सामरिक प्रतिष्ठान इतना बड़ा, शक्तिशाली और संख्या-बहुल है कि उसके लिए माओवाद कोई अपराजेय चुनौती नहीं है. साफ है कि नक्सलवादी अब एक हारती हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. इस लड़ाई में उनके सफल होने की कोई उम्मीद नहीं है. ऐसी स्थिति में कम से कम व्यावहारिकता का तकाजा यह है कि अनावश्यक खून-खराबे को आमंत्रित कर और निरीह आदिवासियों की जान देने के बजाय वे कोई ऐसा तरीका निकालें जिससे वर्तमान युद्ध पर पूर्ण विराम लगाया जा सके और जन संघर्ष को जारी भी रखा जा सके.

 

इस स्थिति से बचने का एकमात्र उपाय यह है कि माओवादी आपस में मंत्रणा कर अपने हथियार फेंकने या उन्हें नष्ट करने का फैसला करें और लोकतात्रिक तथा अहिंसक तरीके से जन संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हों. हिंसक प्रतिकार और संघर्ष का जो रास्ता उन्होंने चुना था, वह अब बंद गली के सिरे तक पहुंच चुका है.

 

परिस्थिति की सीख यही है कि अब जनवादी संघर्ष को एक निर्णायक मोड़ दिया जाए तथा जो लड़ाई जंगलों और अर्ध-जंगलों में चल रही थी, उसे खुले में लाया जाए और गावों, कस्बों तथा शहरों तक फैलाया जाए. भारत के लोग वर्तमान स्थिति से बुरी तरह ऊब चुके हैं. वे जनविरोधी नीतियों और निर्णयों के खिलाफ संघर्ष करना चाहते हैं. पर उनके सामने नेतृत्व नहीं है. वर्तमान दलों में कोई भी ऐसा दल नहीं है जो इस संघर्ष में जनता का प्रतिनिधित्व तथा नेतृत्व कर सके. क्या माओवादी इस शून्य को भरने की कोशिश नहीं कर सकते.

Source: Jagran Yahoo

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