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पूरे विश्व में आर्थिक मंदी के दौर ने अनेक कॉरपोरेट घरानों को कई नए लाभ दिलाए. कंपनियों ने मंदी के नाम पर अपनी कई ऐसी नीतियों को सफलतापूर्वक संचालित किया जिनसे कर्मचारियों और आम जनता को हानि पहुंची. देखा यह गया कि एक ओर तो छंटनी की गयी और वेतन भी कम किये जाते रहे वहीं उन्होंने विश्वव्यापी अधिग्रहण-विलय को अंजाम दिया. मंदी से निपटने में सरकारी सहयोग देने के नाम पर कंपनियों के किसी भी कार्य पर कोई नियंत्रण नहीं लागू किया गया फलतः लूट की खुली छूट देखने को मिली.
2009 में जब विश्व आर्थिक मंदी की आग में जल रहा था और इसकी तपिश भारत में भी महसूस की जा रही थी, तब भारत ने तीन किस्तों में करीब साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज जारी किया था। हम सरकारी अनुदान हड़पने में किसानों और गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को दोषी ठहराते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि उद्योग और व्यवसाय जगत इनसे कई गुना ज्यादा अनुदान व कर छूट का लाभ उठाता है। एक तरह से उद्योग जगत जो मुनाफा कमाता है वह सीध-सीधे अनुदान पर निर्भर है।
इस साल जब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी सालाना बजट पेश करने जा रहे थे तब मीडिया ने सुनियोजित अभियान चलाते हुए कहा कि आर्थिक राहत पैकेज वापस नहीं लिया जाना चाहिए। हर टीवी चैनल और गुलाबी अखबार दिन-रात रट लगाए हुए थे कि यदि राहत पैकेज वापस ले लिया गया तो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। टीवी चैनलों पर अर्थशास्त्रियों को परेशानी में डालते हुए मैंने जोरदार शब्दों में कहा था कि राहत पैकेज की आवश्यकता नहीं है और इसे तुरंत वापस लिया जाना चाहिए। इसके कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री की तरफ से बयान आया था कि 2009 में अनुमानित 1.2 करोड़ रोजगार अवसर मुहैया कराने के स्थान पर मात्र डेढ़ लाख लोगों को ही रोजगार दिया जा सका।
उद्योग जगत ने राहत पैकेज जारी रखने की दलील के तौर पर इस बयान का इस्तेमाल किया। मेरे हिसाब से राहत पैकेज उद्योग जगत को अपनी कमजोरी दूर करने के लिए दिया गया था। अगर आप सोचते हैं कि उद्योगों में छंटनी आर्थिक मंदी के कारण की गई तो यह पूरी तरह गलत है। उद्योग जगत ने मंदी को कर्मचारियों की छंटनी के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया, इससे अधिक कुछ नहीं। उन पत्रकारों से पूछिए जिन्हें हाल ही में नौकरी से चलता कर दिया गया। वे बताएंगे कि उन्हें निकाले जाने का कारण आर्थिक संकट नहीं था। मैं यह समझने में असमर्थ हूं कि आर्थिक संकट के दौर में भारतीय कंपनियां अफ्रीका, लातिन अमेरिका और यूरोप में धड़ाधड़ अधिग्रहण कैसे कर रही थीं? पिछले तीन साल में भारतीय कंपनियों ने 11 प्रमुख अधिग्रहण या विलयन किए हैं।
वास्तव में वैश्विक अधिग्रहण और विलयन के क्षेत्र में भारत एक प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर तब उभरा, जब विश्व आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था। उदाहरण के लिए, गोदरेज कंज्यूमर प्रोडक्टस लि. अब अपना छठा वैश्विक अधिग्रहण करने जा रही है। सन 2000 से टाटा समूह 16,000 करोड़ रुपये की लागत से विदेशों में 27 कंपनियां खरीद चुका है। भारतीय टेलीकाम का दक्षिण अफ्रीका की एमटीएन के साथ विलयन हाल का सबसे विलयन है। वास्तव में आर्थिक संकट ने धनी घरानों को और अधिक अमीर बनने के शानदार अवसर उपलब्ध कराए हैं। अन्यथा इसका कोई कारण नजर नहीं आता कि आर्थिक संकट के समय में विश्व का अमीर क्लब और अधिक संपन्न हो गया है।
वित्तीय राहत पैकेज धनी लोगों को और अधिक संपदा जुटाने के लिए दिया गया और वह भी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के नाम पर। अन्यथा कोई इसे सही कैसे ठहरा सकता है कि 2009-10 में भारत में अरबपतियों की संख्या दोगुनी हो गई है। न केवल उच्च बल्कि मध्यम वर्ग ने भी 2009-10 में 25 प्रतिशत अधिक कारें खरीदीं। इस अवधि में देश में 15 लाख से अधिक कारें बेची गईं। मैं नहीं सोचता कि लोग तब कार खरीदते हैं जब उनकी जेब में पैसा कम होता है। वास्तव में 2009-10 में ही भारत में सबसे अधिक कारें लाच भी हुई हैं।
फोर्ब्स पत्रिका के अनुसार सर्वाधिक धनी क्लब में भारत के 49 अरबपति शामिल हैं। यह संख्या पिछले साल से 24 अधिक है।
क्या यह अजीब नहीं कि जब देश आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था तब अरबपतियों की संख्या दोगुनी हो गई। यह समझ से परे है कि जो उद्योग जगत एक साल में डेढ़ लाख से अधिक रोजगार नहीं दे सकता वह अपनी संपदा को इस तरह कैसे बढ़ा सकता है? यह कैसे संभव है जबकि स्थितियां प्रतिकूल बताई जा रही हैं? धनवान लोगों की संपदा में गुणात्मक परिवर्तन राहत पैकेज के कारण ही संभव हुआ है। दूसरे शब्दों में दुनिया भर में एक विचित्र आर्थिक नुस्खा लागू किया गया-लागत का सामाजीकरण, लाभ का निजीकरण। आपने और मैंने राहत पैकेज में योगदान दिया है और उद्योगपतियों ने इसे बड़ी सफाई से अपनी जेब में डाल लिया है।
हमें जिस चीज का अहसास नहीं होता वह यह है कि आम जनता ही औद्योगिक समृद्धि में अनुदान देती है। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लीजिए, जहां गोरखपुर के पास खुशीनगर में एक नया हवाई अड्डा मंजूर किया गया है। बड़े सोचविचार के बाद उत्तर प्रदेश की सरकार ने 550 एकड़ जमीन के लिए 60 साल की लीज नाममात्र के सौ रुपये पर मुहैया कराई है। इसके अलावा दो सौ एकड़ जमीन माल और होटल आदि के निर्माण के लिए भी दी है। इस तरह महज साढ़े पांच रुपये में एक एकड़ जमीन 60 साल के लिए पट्टे पर दे दी गई। हैरानी की बात है कि आर्थिक संकट के दौर में भी देश के विभिन्न हिस्सों में स्पेशल इकोनोमिक जोन स्थापित करने के 1046 प्रस्ताव मंजूर किए गए हैं। इनमें सबसे अधिक महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में हैं। इसके अलावा तमिलनाडु, गोवा, गुजरात और पश्चिमी बंगाल में भी बड़ी संख्या में सेज मंजूर किए गए हैं। 10 साल तक कर मुक्ति और बेहिसाब छूटों के साथ कंपनियों को मोटा मुनाफा बटोरने का अवसर दे दिया गया है।
20 हजार करोड़ रुपये का आईपीएल का शहद अरबपतियों में बांट दिया गया है। विडंबना यह है कि यह ऐसे समय में हो रहा है जब सरकार खाद्य अनुदान राशि को घटाने पर बजिद है। गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को प्रति माह प्रस्तावित 25 किलो खाद्यान्न को तीन रुपये की दर से दिए जाने पर कुल खर्च 28860 करोड़ रुपये बैठता है। अगर सरकार इसे बढ़ाकर प्रति परिवार 35 किलो कर देती है तो यह राशि 40400 करोड़ रुपये हो जाएगी। दूसरे आकलन के अनुसार भी वार्षिक खाद्य अनुदान विद्यमान 56000 करोड़ रुपये से कम बैठता है। भूखों के भोजन की कीमत घटाकर ही अमीरों का पेट भरा जा सकता है।
जब भी विश्व आर्थिक संकट से घिरता है तभी ऐसा होता है। 2007-08 में जब विश्व अभूतपूर्व खाद्य संकट का सामना कर रहा था, तब बड़ी खाद्यान्न कंपनियों के शेयर आसमान छू रहे थे। गरीब लोग भूखे रह गए जबकि खाद्यान्न कंपनियों ने मोटा मुनाफा बटोरा। हाल ही में जब भारत में चीनी के दामों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी तब 25 चीनी कंपनियों के शेयर उछल पड़े थे।
बाहरी मदद पर निर्भर आर्थिक सोच में कारपोरेट जगत और बड़े व्यापारिक घरानों के लिए और अधिक पैसा कमाना आसान बना दिया है। आपको किसी वित्तीय गड़बड़ी में फंसने की जरूरत नहीं है, यह काम तो अर्थशास्त्री कर देंगे। वह भी मानवता के खिलाफ सबसे बड़े अपराध पर विश्व को कोई सवाल उठाने का मौका दिए बिना।
Source: Jagran Yahoo
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