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अर्थव्यवस्था और जीवन स्तर में हो रहे बदलाओं ने भारतीय जनता की मनोदशा और चिंतन में भी परिवर्तन ला दिया है. फिल्में समाज का आइना होती हैं और उनमें वहीं चित्रित किया जाता है जो कि समाज में चल रहा होता है. ऐसे में काफी समय पूर्व निर्मित सिनेमैटोग्राफ एक्ट आज के लिए प्रासंगिक नहीं रह गया है. इस आलेख में सिनेमैटोग्राफ एक्ट में बदलाव की जरूरत पर अजय ब्रह्मात्मज ने समयानूकूल टिप्पणी की है.
दर्शकों की अभिरुचि की वजह से तेजी से बदल रहे भारतीय सिनेमा के मद्देनजर देश के सिनेमैटोग्राफ एक्ट में आवश्यक बदलाव लाने की जरूरत सभी महसूस कर रहे हैं. इसी दबाव में लंबे समय से अटके इस एक्ट में आवश्यक बदलाव के लिए इस बार सिनेमैटोग्राफ बिल पेश किया जा रहा है. बिल में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की कार्यप्रणाली और गठन में भी कुछ सुधार किए जाएंगे. आम दर्शकों के हित में सबसे जरूरी सुधार सेंसर की श्रेणियों को बढ़ा कर किया जा रहा है. पिछले कुछ सालों से फिल्मकार और दर्शक महसूस कर रहे थे कि सेंसर बोर्ड की तीन प्रचलित श्रेणियां भारतीय फिल्मों के वर्गीकरण के लिए पर्याप्त नहीं हैं. अभी तक भारत में यू (यूनिवर्सल- सभी के योग्य), यूए और ए श्रेणियों के अंतर्गत ही फिल्में श्रेणीकृत की जाती हैं. कई निर्देशक सालो पुरानी इस परिपाटी को आज के संदर्भ में अप्रासंगिक और अर्थहीन मानते हैं. उनकी नजर में हमें फिल्मों के श्रेणीकरण में विदेशों के अनुभव से लाभ उठाकर इनकी संख्या बढ़ानी चाहिए ताकि किशोर उम्र के दर्शकों के देखने योग्य फिल्मों का स्पष्ट वर्गीकरण हो सके.
आम दर्शक नहीं जानते कि फिल्मों के प्रमाणन की श्रेणियां कैसे तय की जाती हैं. आम धारणा है कि अगर नग्न और अश्लील दृश्य हों तो फिल्मों को ए सर्टिफिकेट दे दिया जाता है. यह सच होते हुए भी पूरा सच नहीं है. दुनिया के हर देश में सेंसर सर्टिफिकेट मुख्य रूप से भाषा, हिंसा, नग्नता और विषय के आधार पर दिए जाते हैं. माना जाता है कि दर्शकों के उम्र और उनकी ग्राह्य शक्ति को ध्यान में रख कर ये श्रेणियां बनाई जाती हैं. अभी तक भारतीय फिल्में यू, यूए और ए प्रमाणन के साथ ही रिलीज की जाती हैं. यूए एक सामान्य श्रेणी बन गई है, जिसमें उम्र की कोई सीमा स्पष्ट नहीं की गई है. नए बिल में यूए 12प्लस और 14 प्लस दो श्रेणियां सुनिश्चित की जा रही हैं. इसके अलावा पहले से मौजूद एस (स्पेशल) कैटेगरी को सख्ती से लागू किया जाएगा. इस श्रेणी में स्पेशल फिल्में होती हैं, जो विशेष समूह, समुदाय और वर्ग के लिए होती हैं. इस श्रेणी में ज्यादातर गैरफीचर फिल्में ही होती हैं. फिल्म निर्माताओं और समाजशास्त्रियों की राय है कि भारतीय फिल्मों में नया श्रेणीकरण आवश्यक है. लेकिन थिएटरों में प्रवेश कर रहे दर्शकों पर सख्त नजर रखी जाना जरूरी है, ताकि दर्शक श्रेणियों और नियमों का उल्लंघन न करें. देखा जाता है कि छोटे शहरों और सिंगल स्क्रीन थिएटरों में किशोर उम्र के दर्शक आसानी से एडल्ट फिल्में देख आते हैं. प्राय: कालेज और हाईस्कूल की ऊंची जमात के बच्चे नियमों की परवाह नहीं करते. थिएटर के कर्मचारी और प्रशासन भी उन पर ध्यान नहीं देते. उल्लेखनीय है कि ए श्रेणी की फिल्में जब टीवी पर प्रसारित की जाती हैं तो उनमें से कुछ बोल्ड, नग्न और कठोर भाषा के दृश्य हटा दिए जाते हैं. माना जाता है कि टीवी पर आ रही फिल्में परिवार के सभी सदस्य देखते हैं.
ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में अलग-अलग नामों से कम से कम पांच-छह श्रेणियां सुनिश्चित हैं. एडल्ट और जनरल के बीच में पीजी (पैरेंटल गाइडेंस) की अनेक श्रेणियां रहती हैं. फ्रांस में 10, 12, 16, 18 की उम्रों के लिए अलग-अलग श्रेणियां हैं. ब्रिटेन में यह वर्गीकरण 12, 15 और 18 का है तो जर्मनी में 6, 12 और 16 का. तुर्की में 7, 11, 13, 16 और 18 की उम्र का खयाल रखते हुए श्रेणियां बनाई गई हैं. इंटरनेट यूजर्स को मालूम होना चाहिए कि यूट्यूब के वीडियो का भी श्रेणीकरण किया गया है. अगर आप गौर करें तो गफलत नहीं हो सकती. आपके घर में गलती से एडल्ट वीडियो बच्चे नहीं देख सकते. यूट्यूब एल (लैंग्वेज), एन (न्यूडिटी), एस (सेक्सुअल सिचुएशन) और वी (वायलेंस) की मात्रा के आधार पर प्लस जोड़ कर बता देता है कि आप जो वीडियो देखने जा रहे हैं, उसमें भाषा, नग्नता और हिंसा किस मात्रा में है.
देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर हम भारत सरकार की इस पहल पर संतोष कर सकते हैं, लेकिन हमें यह भी देखने की जरूरत है कि सेंसर बोर्ड के प्रमाणन के बाद फिल्म किसी प्रकार की आपत्ति का शिकार न हों. विभिन्न समुदाय, समूह, वर्ग और व्यक्ति सेंसर बोर्ड से ज्यादा ताकतवर न साबित हों. भारत सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि फिल्में सही ढंग से सेंसर हों और सेंसर की जा चुकी फिल्मों का निर्बाध प्रदर्शन हो.
Source: Jagran Yahoo
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