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नक्सलियों के अविलंब सफाए की जरूरत

संपादकीय ब्लॉग
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देश में इस समय शोक की पराकाष्ठा व्याप्त हो चुकी है. केन्द्र और राज्य सरकारों की लापरवाही और उनके अपने-अपने स्वार्थों का खामियाजा निर्दोष जनता भुगत रही है. नक्सलियों से मिले हुए सफेदपोश छद्म मानवाधिकारवादियों और मीडिया के विशेष वर्ग द्वारा नक्सलवाद को दिया जा रहा समर्थन कितना घातक सिद्ध हो चुका है इसे पूरा देश देख रहा है. दंतेवाड़ा में देश के वीर सपूतों का बलिदान आज चीख-चीख कर पुकार रहा है कि इस अराजकता का अविलंब अंत किसी भी कीमत पर किया जाए चाहे इसके लिए सेना ही क्यों ना लगानी पड़े.

 

दंतेवाड़ा में नक्सलियों के बर्बर हमले में 76 जवानों को खोने के बाद केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया भरोसा पैदा करने वाली नहीं है. जहां गृहमंत्री चिदंबरम यह कह रहे हैं कि नक्सलियों के खिलाफ वायु सेना का इस्तेमाल नहीं करने की नीति पर दोबारा विचार किया जा सकता है वहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहा कि फिलहाल हमने इस बारे में गौर नहीं किया है. ये वक्तव्य विरोधाभासी न भी हों तो भी वे ऐसा कोई संकेत नहीं देते कि निरंकुश और निर्दयी नक्सलियों को नष्ट करने के लिए केंद्र सरकार क्या ठोस कदम उठाने जा रही है?

 

यह संभव है कि नक्सलियों के सफाए के लिए सैन्य शक्ति के इस्तेमाल की आवश्यकता न हो, लेकिन इस तर्क का कोई मूल्य नहीं कि अपने ही नागरिकों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल सही नहीं. यदि ऐसा ही है तो फिर पूर्वोत्तर में चलाए गए ऑपरेशन राइनो और बजरंग क्या थे? क्या उल्फा उग्रवादी इस देश के नागरिक नहीं थे? ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार नक्सल प्रेमी बुद्धिजीवियों के दुष्प्रचार का शिकार हो गई है, जो यह माहौल बनाने में लगे हुए हैं कि नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल कदापि नहीं किया जाना चाहिए. आखिर इसका क्या मतलब कि केंद्र सरकार एक ओर नक्सलियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताए और दूसरी ओर उनके खिलाफ बल प्रयोग करने से भी हिचकिचाए?

 

केंद्रीय सत्ता इस सामान्य तथ्य से अपरिचित नहीं हो सकती कि नक्सली गुरिल्ला संघर्ष में पारंगत हैं और उनके खिलाफ जिन अर्द्ध सैनिक बलों का इस्तेमाल किया जा रहा है वे लड़ाई की इस शैली से सर्वथा अनजान हैं. सच तो यह है कि अर्द्ध सैनिक बलों के जवान उन इलाकों से भी अनजान हैं जहां उन्हें नक्सलियों के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा जा रहा है-और वह भी बिना विशेष प्रशिक्षण के. यही कारण है कि लालगढ़ में वे निष्प्रभावी सिद्ध हो रहे हैं और छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि के जंगलों में नक्सलियों से मात खा रहे हैं.

 

हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री यह मान रहे हैं कि दंतेवाड़ा में कोई बड़ी चूक हुई, लेकिन देश जानना चाहेगा कि क्या केंद्रीय सत्ता यह समझ पा रही है कि नक्सलियों के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई से अपरिचित जवानों का इस्तेमाल करना आत्मघाती है? यह शुभ संकेत नहीं कि एक के बाद एक आघात के बावजूद ऑपरेशन ग्रीन हंट को सही तरीके से संचालित नहीं किया जा पा रहा है. इसी तरह यह भी चिंताजनक है कि नक्सलियों और आदिवासियों में भेद करने से भी बचा जा रहा है.

 

केंद्र सरकार मानवाधिकार के छद्म समर्थकों का भी सामना करने में असमर्थ दिखाई दे रही है. ये छद्म मानवाधिकारवादी यह शोर तो मचा रहे हैं कि आदिवासियों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए, लेकिन कोई भी यह परिभाषित नहीं कर पा रहा कि उनके हित किसमें निहित हैं? मानवाधिकावादियों की मानें तो आदिवासियों को नक्सलियों के भरोसे छोड़ देना चाहिए. वे यह भी साबित करने में लगे हुए हैं कि खनिज संपदा से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए. आखिर यह क्या बात हुई? यदि केंद्र सरकार ने दंतेवाड़ा की घटना से सबक लिया है तो उसे नक्सलियों के दुष्प्रचार की काट करने के साथ-साथ आंतरिक सुरक्षा के लिए उचित कदम उठाने में देर नहीं करनी चाहिए- आवश्यक हो तो सेना का हर संभव उपयोग भी किया जाना चाहिए.

Source: Jagran Yahoo

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