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शिक्षा को देश के 6-14 आयुवर्ग के बच्चों का मौलिक अधिकार बनाने वाला ऐतिहासिक कानून एक अप्रैल से लागू हो रहा है. इस कानून से लगभग एक करोड़ ऐसे बच्चों को लाभ होगा जो अभी भी स्कूल नहीं जाते हैं.
यह कानून छह से चौदह आयु वर्ग के सभी बच्चों को स्कूल पहुंचाने के कार्य को सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय और राज्य सरकारों पर बाध्यकारी होगा जिससे स्कूल में बीच में ही पढ़ाई छोड़ चुके बच्चे या कभी किसी शैक्षणिक संस्थान तक नहीं पहुंचे बच्चे प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे. केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा 55:45 के अनुपात में कोष की साझेदारी पर सहमत होने के बाद इसे लागू किया जा रहा है.
यह कानून स्कूलों में शिक्षक और छात्रों के अनुपात को सुधारने का प्रावधान करता है. अभी कई स्कूलों में सौ-सौ बच्चों पर एक ही शिक्षक हैं. लेकिन इस कानून में प्रावधान है कि एक शिक्षक पर 40 से अधिक छात्र नहीं होंगे.
इस कानून की कुछ अच्छाइयां हैं जो शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाने में मददगार सिद्ध होंगी. जैसे राज्य सरकारों को बच्चों के लिए लाइब्रेरी, क्लासरूम, स्पोर्ट्स ग्राउंड और अन्य जरूरी वस्तुएं उपलब्ध कराना होगा. पंद्रह लाख नए शिक्षकों की भर्ती करनी होगी और उन्हें एक अक्टूबर तक प्रशिक्षित करना अनिवार्य है. सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश लिया जाएगा तथा निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत स्थान निर्धन बालक-बालिकाओं के लिए रखना होगा.
लेकिन इस कानून में कुछ ऐसी कमियां भी हैं जिन्हें लेकर संदेह के बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं. यह कानून 0-6 आयुवर्ग के बीच के बच्चों की शिक्षा के बारे में मौन है. जबकि संविधान के अनुछेच्द 45 में उल्लिखित है कि संविधान के लागू होने के दस वर्षों के भीतर सरकार 0-14 वर्ग के आयुवर्ग के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगी. कोठारी आयोग ने अपनी अनुशंसा में शिक्षक-छात्र अनुपात को 1:30 रखने की सिफारिश की थी जबकि इस कानून में यह अनुपात 1: 40 का है. इस कानून में 14-18 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा के विषय में भी प्रावधान होने चाहिए थे, जबकि इसमें उसका नाम तक नहीं लिया गया है.
वर्ष 2002 में हुए 86वें संविधान संशोधन द्वारा प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल कर लिया गया था साथ ही इसको मूल कर्तव्य भी बना दिया गया था. लेकिन सरकार में संकल्प शक्ति के अभाव के कारण इसे अभी तक पूरा नहीं किया गया. अब केन्द्र सरकार इसे कानून का रूप देकर वाहवाही लूटना चाहती है.
इतनी कवायद के बाद यह आशा तो की जा रही है कि भारत सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को पूरा करने की हालत में पहुंच सकता है किंतु विभिन्न सरकारी योजनाओं और कानूनों की हालत देख कर एकदम से यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह कानून अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल रहेगा. यदि वाकई कथित लक्ष्यों को पाना है तो फिर सरकारी लालफीताशाही-नौकरशाही के अड़ंगा लगाने वाले रवैये पर लगाम लगा कर आगे बढ़ने की कोशिश करनी होगी. इसके अलावा शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाना होगा ताकि एक प्रोत्साहन वाला वातावरण कायम हो.
वास्तविक शिक्षा ज्ञानवान समाज को निर्मित करती है. इसके द्वारा जीवन जीने की सही कला का ज्ञान होने के साथ समाज और समुदाय के प्रति जिम्मेदारी का भी बोध होता है. सही अर्थों में कहा जाए तो इसकी सबसे बड़ी भूमिका व्यक्तित्व के निर्माण में है जिससे मानव अपने भावी पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय मार्ग को प्रशस्त करता है. इसलिए केवल साक्षरता को लक्ष्य ना बनाया जाए बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता और उसे जीवन में प्रायोगिक ढंग से उतारने की ओर ध्यान कायम करना चाहिए ताकि सभी वंचित वर्गों व समुदायों को इसका वास्तविक लाभ हासिल हो सके और अंतिम तौर पर परिणाम सुखद हो.
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