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नवयुग की यही पुकार, नारी सशक्तिकरण है वक्त की दरकार

संपादकीय ब्लॉग
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नारी मुक्ति और सशक्तिकरण के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में चारो ओर नई गूंज सुनने को मिल रही है. भारत सहित विश्व के सभी देशों में इसे एक उत्सव की तरह जोर-शोर से मनाने की होड़ लगी हुई है. तमाम देशों की सरकारों सहित अनेक गैर सरकारी संगठन अपने-अपने तरीके से इसे सकुशल संपन्न करने की घोषणा कर रहे हैं.
भारत में इस समय नारी सशक्तिकरण का सबसे बड़ा अनुष्ठान “संसद और विधानमंडलों में महिला आरक्षण” के लिए हो रहा प्रयास है. कॉग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सहित कई दल इस मुद्दे पर एकमत होने की कोशिश में हैं जबकि कुछ छोटे क्षेत्रीय दल किसी भी हालत में महिला आरक्षण विधेयक को उसके मूल स्वरूप में पारित किए जाने का विरोध कर रहे हैं. इन दलों की मांग है कि जब तक विधेयक में दलित और अन्य पिछड़े वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण का प्रावधान नहीं किया जाता है तब तक इस मसौदे को आगे बढ़ाने की चेष्टा नहीं होनी चाहिए.
हालिया स्थिति
महिला हक और सशक्तिकरण के मामले में भारत की स्थिति दुनियां के लिहाज से काफी बुरी है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी हालिया रिपोर्टों में इस बात को दृढ़ता से उठाया है. यहॉ महिलाएं राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तीनों स्तरों पर उपेक्षा की शिकार होती रही हैं. हालांकि भारतीय महिलाओं की सफलता के कुछ ऐसे चमकदार उदाहरण भी मौजूद हैं जिस पर गर्व किया जा सकता है.
imagesसबसे पहला उदाहरण तो संप्रग की अध्यक्षा सोनिया गांधी का ही लिया जा सकता है जिन्होंने विदेशी मूल के आरोपों को धता बताते हुए देश की जनता के हृदय पर राज किया जबकि उनके विरोधियों ने इसी मुद्दे पर संसद से लेकर सड़क तक एक कर दिया था.
सोनिया गांधी का देश की सबसे पुरानी पार्टी पर वर्चस्व निश्चित रूप से महिला ताकत का सबसे शानदार नमूना है.

kiranभारत की प्रथम महिला आईपीएस किरण बेदी जैसी शख्सियत से इस देश तो क्या विदेशों में भी लोग उतने ही परिचित हैं. कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किरण बेदी ने प्रशासन से लेकर समाज तक अपना योगदान देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

225px-Kiran_mazumdar_shawभारतीय उद्योगपति और बायोकॉन लिमिटेड की चेयरमैन व मैनेजिंग डायरेक्टर किरण मजुमदार शॉ, जो वर्ष 2004 में सबसे संपन्न भारतीय महिला रह चुकी हैं, की उपलब्धियां सचमुच उल्लेखनीय रही हैं. किरण ने 1978 में केवल दस हजार रुपए से शुरू कर जिस प्रकार से बायोकॉन को देश की सबसे प्रतिष्ठित फार्मास्युटिकल फर्म बना दिया वह वाकई काबिले तारीफ है.

200px-Kalpana_Chawla,_NASA_photo_portrait_in_orange_suitहरियाणा के छोटे से कस्बे करनाल की कल्पना चावला को हम कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने भारतीय मूल की पहली महिला अंतरिक्ष यात्री का गौरव प्राप्त किया था किंतु दुर्भाग्य से आसामयिक मृत्यु का शिकार हो गयीं. सुनीता लिन विलियम्स ने भी अंतरिक्ष के क्षेत्र में कई रिकॉर्ड स्थापित करके यह सिद्ध कर दिया है कि नारी शक्ति किसी भी मायने में कम नहीं है.


arundhatiसाहित्य के क्षेत्र की सशक्त हस्ताक्षर और बुकर पुरस्कार विजेता अरुन्धती रॉय ने स्त्री होकर जो मुकाम हासिल किया है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है. अब वह स्त्री सशक्तिकरण सहित पर्यावरण सुधार जैसी गतिविधियों में संलग्न हैं.
समाज सेवा के क्षेत्र में मेघापाटकर नित नई उंचाइयां छू रहीं है. नर्मदा बचाओ आंदोलन के लिए किए जा रहे उनके प्रयासों को पूरा देश देख रहा रहा है.

मीडिया की बड़ी हस्ती बरखा दत्त ने साहसिक पत्रकारिता के क्षेत्र में जो अप्रतिम योगदान दिया है उसे कैसे अनदेखा किया जा सकता है. कारगिल युद्ध की रिपोर्टिंग के दौरान जिस साहस का परिचय उन्होंने दिया था उसे देखकर तमाम पुरुष संवाददाताओं ने दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो गए. जो तेजी और निरपेक्षता उनमें मौजूद है वह रिपोर्टिंग के लिए एक आदर्श स्थिति है.
अब जब बात चल ही रही है महिला सशक्तिकरण और सशक्त महिलाओं की तो सानिया मिर्ज़ा को कैसे भूला जा सकता है. सानिया ने तमाम इस्लामी फतवों और कठमुल्लों के फरमानों को धता बताते हुए जिस तरह टेनिस में नए मुकाम को हासिल किया है वह गर्व का विषय है. सानिया के पूर्व टेनिस में भारतीय महिलाओं की कोई खास उपलब्धि नहीं रही थी.
इसी तरह रितु कुमार, शाहनाज़ हुसैन, एकता कपूर, ऐश्वर्या रॉय आदि की फैशन और फिल्म जगत के लिए दिए गए योगदान को वह मानदंड माना जा सकता है जहॉ भारतीय महिलाओं के लिए अबला की जगह सबला पर्यायवाची का प्रयोग करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
अभी भी राह कठिन है
परंतु क्या सिर्फ चन्द उदाहरणों के दम पर हम पूरे भारत के महिलाओं की तकदीर बदलने की बात सोच सकते हैं? क्या सिर्फ वही महिलाएं ही नहीं आगे आ रही हैं जिनके पास पहले से ही आगे जाने के अवसर मौजूद हैं?
हॉ, देखा जाए तो यही हो रहा है. सशक्त परिवारों की महिलाएं बेहतर शिक्षा ग्रहण कर नए-नए मुकाम हासिल कर रही हैं. जबकि छोटे कस्बों और गांवों में महिलाओं के प्रति नजरिए में कोई खास फर्क नहीं आया है. रीति-रिवाजों और महिला कर्तव्य के नाम पर महिला से त्याग और बलिदान की अपेक्षा ही की जाती है और अधिकार के नाम पर कुछ भी नहीं.
क्या किया जाना चाहिए?
सरकार ने महिलाओं को मुख्य धारा में लाने के लिए कई मोर्चों पर एक साथ प्रयास आरंभ किया है. इसमें से एक कोशिश जेंडर बजटिंग का है. इसके तहत हर विभाग को महिला संवेदी बनाया जाता है. किंतु इस बार का बजट कई रूपों में महिला संवेदी नहीं रह गया है. पंचायतों में महिला आरक्षण ने नारी की स्थिति को मजबूत करने में सबसे बड़ा योगदान दिया है. इसी प्रकार संसद और विधानमंडलों में महिलाओं को तैंतीस फीसदी आरक्षण की कवायद जारी है. लेकिन कई राजनीतिक दल अभी भी इस मुद्दे पर एकमत नहीं हैं.
मुद्दे का निष्पक्ष रूप से विवेचन किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि वास्तव में महिला को सक्षम बनाना है तो उन्हें राजनीतिक रूप से सशक्त करना होगा. जब तक महिलाएं कानून निर्माता की भूमिका में नहीं आती हैं तब तक सशक्तिकरण के दावे सिर्फ दावे ही रह जाएंगे.

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