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द्वितीय हरित क्रांति का फरेब

संपादकीय ब्लॉग
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तमाम कयासों को झुठलाते हुए आखिरकार वित्तमंत्री ने वित्तीय वर्ष 2010-11 का बजट पेश कर दिया. इस बजट से आम आदमी और किसानों को जो उम्मीदें थी वे काफी हद तक अधूरी रह गयीं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस बार के बजट में कृषि उत्पादन बढ़ाने का महती दायित्व मानसून पर डाल दिया है.

 

मौजूदा संकट कृषि क्षेत्र में अधिक उत्पादकता के कारण ठहराव आने की वजह से नहीं, बल्कि कृषि से होने वाली आय की कमी के कारण है. सूखे से निबटने की मशीनरी विकसित करके किसानों का भला हो सकता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की जो बात होती है, उसका फायदा दरअसल उन्हीं 30-40 प्रतिशत किसानों को होता है, जो अपना माल मंडियों में बेचते हैं. बाकी 60 प्रतिशत किसान अपना अनाज मंडियों में नहीं ले जा पाते, इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पाने के दायरे से वे बाहर रह जाते हैं. जरूरत इस बात की है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पाने से बाहर रह गए इन किसानों को इसके दायरे में कैसे लाया जाए?

 

आर्थिक मंदी से निबटने के लिए जिस तरह उद्योग जगत को बड़ी धनराशि बतौर बेलआउट पैकेज के दी गई, उस अनुपात में किसानों को कुछ भी नहीं दिया गया. इसलिए किसानों को यह प्रोत्साहन राशि गेहूं, चावल और मोटे अनाज, खास तौर पर ज्वार, बाजरा और रागी पर बोनस के रूप में दी जा सकती थी. इस समय किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन की जरूरत है. उद्योगों को दिए जा रहे बेलआउट पैकेज में कटौती करके यह राशि जरूरतमंद किसानों को देनी चाहिए थी. मगर यह काम मजबूत राजनीतिक इच्छा शक्ति के बिना संभव नहीं है.
देश के कृषि क्षेत्र को काफी दिनों से जिसका इंतजार था, उसकी घोषणा इस बार प्रणब मुखर्जी ने बहुत चतुराई से चारसूत्रीय नीति कार्यक्रम के रूप में की. जिसका अभिप्राय तो अच्छा है, मगर सामग्री कमजोर है. उम्मीद की जा रही थी कि कृषि क्षेत्र में 4 फीसदी विकास दर को हासिल करने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार इस बार कोई ठोस संकेत देने पर विचार करेगी. फिलहाल देश में कृषि विकास दर बेहद न्यूनतम 0.2 प्रतिशत है, जो हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा अवरोधक है.

 

चार सूत्रीय घोषणा किसानों के लिए नाममात्र से ज्यादा मायने नहीं रखता. इसी तरह शुष्क जमीन वाले देश के 60 हजार गांवों में दलहन और तिलहन के उत्पादन को पुनर्जीवित करने के लिए जो 300 करोड़ रुपये देने की बात की गई है, वह गलत नीति है. गौरतलब है कि दलहन और तिलहन के उत्पादन में गिरावट किसानों की अक्षमता के कारण नहीं, बल्कि सरकार की नीतियों के कारण आई है.

 

पिछले सालों में सरकार ने आयात शुल्क में जो छूट दी, उसके कारण बड़े पैमाने पर विदेशों से सस्ते खाद्य तेल का आयात हुआ. आयात शुल्क में कटौती के कारण पिछले कुछ सालों में ऐसी स्थिति बन गई कि भारत दुनिया में खाद्य तेलों का दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन गया. दलहन और तिलहन का उत्पादन तब तक नहीं बढ़ाया जा सकता, जब तक सरकार आयात शुल्क की कटौती वापिस नहीं लेती. विश्व व्यापार संगठन के नियमों के तहत भारत तिलहन के आयात पर 300 फीसदी तक शुल्क लगा सकता है, जिसे घटाकर शून्य तक लाया जा सकता है. इसी तरह दालों के लिए आयात शुल्क शून्य है. जब तक दालों की स्थिति सामान्य नहीं होती तब तक तो ठीक है, मगर भारतीय किसान विदेशों से सस्ती दर पर आयात की जाने वाली दालों की कीमतों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते. ऐसी सूरत में सस्ती दरों पर विदेशों से दालें आयात करने का मतलब दरअसल वहां से भारत में बेरोजगारी आयात करने जैसा होगा.

 

पूर्वोत्तर राज्यों में हरित क्रांति के लिए 400 करोड़ रुपये देने की बात की गई है, यह भी गलत रणनीति है. क्योंकि हरित क्रांति की प्रौद्योगिकी ने पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश की जमीन की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर दिया है. दरअसल हरित क्रांति मिंट्टी की उर्वरा शक्ति जैसे प्राकृतिक संसाधन पर आधारित था, जिसके खात्मे के साथ घटते उत्पादन और बढ़ती लागत ने किसानों को खुदकुशी के लिए मजबूर कर दिया. इसके बावजूद पूर्वोत्तर राज्यों में हरित क्रांति के लिए पैकेज की घोषणा इस बात का प्रमाण है कि देश ने हरित क्रांति के पूर्व के अनुभवों से आज तक कोई सबक नहीं लिया.

 

पिछले तीन-चार सालों में जमीनी हालात से अनजान रहने वाले अर्थशास्त्रियों ने कृषि संकट को असहनीय स्तर तक बढ़ा दिया है. अब समय आ गया है कि किसानों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए ईमानदारी से प्रयास किए जाएं, जो तभी संभव है जब इसके लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई जाए.

Source: Jagran Yahoo

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