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बिहार के लिए महाराष्ट्र में जंग

संपादकीय ब्लॉग
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arun nehru

2010 अपेक्षाकृत शांत वर्ष रहेगा। इस साल में मात्र एक राज्य, बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं किंतु अल्पसंख्यक वोटों के लिए संघर्ष अभी से छिड़ गया है। 2014 में कांग्रेस को बहुमत दिलाने में ये वोट निर्णायक भूमिका निभाएंगे। महाराष्ट्र में शिवसेना और शाहरुख खान विवाद राजनीतिक जंग में बदल गया है। इससे कांग्रेस को उत्तर भारत में खिसकी अपनी जमीन को वापस पाने का अवसर मिला है। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की चौंकाने वाली जीत अल्पसंख्यक वोटों के रुख में नाटकीय परिवर्तन के कारण हुई थी। वह भी तब जब करिश्माई अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1999 में संप्रग सरकार का सफल कार्यकाल पूरा होने के बाद चुनाव हुए थे। 2004 से 08 के बीच जिन राज्यों में चुनाव हुए उनमें से कई में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया, किंतु इस प्रदर्शन को 2009 के लोकसभा चुनाव में नहीं दोहरा पाई। कांग्रेस को दो सौ से अधिक सीटें मिलीं, जिनमें उत्तर प्रदेश की 21 सीटें शामिल थीं। कांग्रेस के उभार से राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने का बसपा का अभियान और मायावती की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ठंडी पड़ गई। किंतु उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में बसपा को मिली जीत से सपा का पतन शुरू हो गया, जो बाद में पार्टी में फूट के रूप में सामने आया। इन चुनावों में बसपा के वोट बैंक में बढ़ोतरी हुई और सपा के जनाधार में कटौती। कई सीटों पर कांग्रेस को नीचा देखना पड़ा। यह रुझान निर्णायक नहीं था, किंतु स्पष्ट तौर पर सपा से छिटका वोट बैंक कांग्रेस से अधिक बसपा की झोली में गया। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में बसपा की स्थिति मजबूत है और कांग्रेस भी तगड़ी दावेदार के रूप में उभर रही है। सपा को आंतरिक संघर्ष ने तगड़ा झटका दिया है। उधर, बिहार में जनता दल -भाजपा दुर्ग में आंतरिक असंतोष के कारण दरारे पड़ गई हैं। इसका सबसे अधिक नजला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जनता दल पर पड़ा है। शिवसेना के अस्तित्व को बचाने के संघर्ष ने कांग्रेस को वोट बैंक मजबूत करने का मौका दे दिया है। बिहार और उत्तर प्रदेश में 120 सीटों की जंग महाराष्ट्र से शुरू हो गई है। शिवसेना के दोनों घटकों को हालिया उपद्रवों का खामियाजा भुगतना होगा क्योंकि राष्ट्र की मनोदशा इस तरह के अतिरेक के खिलाफ है।
48 सीटों वाला महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश के बाद सबसे बड़ा राज्य है। 2009 के चुनाव से स्पष्ट हो गया है कि यहां कांग्रेस-राकांपा गठबंधन भाजपा-शिवसेना गठजोड़ से मजबूत है। क्या 2014 के चुनाव तक ये दोनों गठबंधन कायम रहेंगे? बदलाव की हवा चल रही है। कांग्रेस मजबूती से आगे बढ़ रही है जबकि शरद पवार और राकांपा रक्षात्मक है। उसके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। भाजपा-शिवसेना की स्थिति भी अलग नहीं है। उत्तर प्रदेश और बिहार की घटनाओं का असर महाराष्ट्र के गठजोड़ पर पड़ सकता है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के सफल दौरे ने मामले को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचा दिया है और अब शिवसेना को किसी भी राजनीतिक दल से समर्थन जुटाने में दिक्कतें आएंगी, यहां तक की भाजपा से भी। उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में लोग मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य शहरों में जाते हैं इसलिए महाराष्ट्र की घटनाओं मुद्दे पर सपा, बसपा और जनता दल (यू) के पास भी कांग्रेस को समर्थन देने के अलावा कोई चारा नहीं है। आईपीएल के मसले पर शरद पवार शिवसेना प्रमुख के घर गलत समय पर गए। उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में लोकसभा की 542 में से 168 सीटें हैं। इनमें से कांग्रेस के पास करीब 40 सीटें ही हैं। अगले चुनाव में यह आंकड़ा दोगुना हो सकता है। आंध्र प्रदेश में तेलंगाना मुद्दे पर लगे झटके के बाद कांग्रेस के लिए इन राज्यों में समर्थन बढ़ाना जरूरी हो गया है। कुल मिलाकर बिहार में 2010 में और उत्तर प्रदेश में 2011 में होने वाले चुनाव भविष्य के रुझान को परिभाषित करेंगे।
2010 के शुरू के दो माह वैश्विक शक्ति समीकरणों के हिसाब से बहुत उतार-चढ़ाव वाले रहेंगे। काफी हद तक आर्थिक संसाधन जी-8 देशों से जी-20 को स्थानांतरित हो जाएंगे, जिनमें भारत, ब्राजील, चीन और रूस (ब्रिक) देश भी शामिल हैं। दीर्घकालीन आधार पर यह सकारात्मक संकेत है। इससे महत्वपूर्ण वैश्विक फैसलों में संतुलन स्थापित होगा। अब वैश्विक व्यवस्था एकल महाशक्ति पर निर्भर नहीं रहेगी। परिणामस्वरूप वैश्विक संस्थानों का, जिनमें संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थान भी शामिल हैं, पुनर्गठन होगा।
हमारे सामने विश्व व्यापार संगठन वार्ता और जलवायु परिवर्तन पर वार्ता के अलावा आंतरिक और वाह्यं सुरक्षा की गंभीर मुद्दे हैं। हमारा 7-8 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर हासिल करने का लक्ष्य है। हम उन राजनीतिक हादसों को नहीं झेल सकते जो अकसर लोगों का विश्वास डिगा देते हैं। कई महीनों से अधर में लटका तेलंगाना मुद्दा चिंता का विषय है। हैदराबाद में दिलीप ट्राफी क्रिकेट के फाइनल मैच में स्टेडियम में कोई दर्शन न होना दुर्भाग्यपूर्ण रहा। पिछले छह माह से खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ रही हैं और यह कुशासन का उदाहरण है। हम वोट बैंक को राजनीति से पृथक नहीं कर सकते। इसीलिए वोट बैंक की समग्र रूप से चर्चा करने के बजाए वोट बैंक को अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक में वर्गीकृत करते हैं। सच्चाई यह है कि सकल घरेलू उत्पाद में शानदार प्रदर्शन के बावजूद संपन्न और वंचितों के बीच बढ़ता अंतर लोकतांत्रिक राजनीति के पर गहरा असर डालता है। आम आदमी के हितों की रक्षा न केंद्र कर रहा है और न ही राज्य। यह साल कठिन साबित होगा।

 


[अरुण नेहरू: लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]

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