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राष्ट्रद्रोहियों को ग्लैमराइज करते हुए हमारा मीडिया उनके फुटेज क्यों दिखाता है? जो भारत को तोड़ने की बात करते हैं हम उन पर कैमरा फोकस करते हैं। दाऊद घोषित शत्रु है, ये दाऊद से ज्यादा खतरनाक हैं। महाराष्ट्र को भारत से बड़ा बताने वालों का और दाऊद का एजेंडा एक है। जिन लोगों का बायकाट होना चाहिए, वे ब्रेकिंग न्यूज के हीरो हैं। हत्या की सजा तो सजाए मौत है, लेकिन जो देश की हत्या करने का मंसूबा रखते हैं उनके बारे में हमारा कानून क्या कहता है? कोई पूछता है कि अभी वे रस्सियां क्यों नहीं बनीं जिनसे गद्दारों को लटका दिया जाए। वे गोलियां कब बनेंगी, जिन पर गद्दारों के नाम लिखे हों। कोई भगत सिंह जैसा सवाल करता है कि क्या हमें क्रांतियों तक इंतजार करना होगा? सरकारें बार-बार कड़ी कार्रवाई करने का बयान जारी करती हैं। कड़ी कार्रवाइयां शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं।
गत वषरें से आतंक झेलते-झेलते मुंबई में उत्तर भारतीय दोयम दर्जे के नागरिक होते जा रहे हैं। जिस दिन मुंबई में उत्तर भारतीयों पर सशस्त्र हमले प्रारंभ हो जाएंगे उस दिन उन्हें कश्मीर के पंडितों के तरह मुंबई छोड़ देने से रोका नहीं जा सकेगा। यही गद्दारों की मंशा भी है। भारत को तोड़ने का जो काम दाऊद नहीं कर सका, पाकिस्तान की आईएसआई नहीं करा सकी, वह काम मुंबई के ये गद्दार कर गुजरेंगे। इन्हें सजा कौन देगा? अगर ये देश को तोड़ने की बात करते हुए खुलेआम घूम रहे हैं तो हमने क्यों सफदर नागौरी को जेल में बंद कर रखा है। इनकी तानाशाही मनोवृत्तियां लोकतंत्र का इस्तेमाल कर रही हैं। राजनीतिक दल सेनाओं के नाम पर हैं। क्या इन सेनाओं को लोकतात्रिक दलों के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए? राष्ट्रद्रोहियों की नागरिकता स्थगित और निरस्त करने के कानून क्यों नहीं है? हम कैसे-कैसे लोगों को नेता मानने पर मजबूर हैं।
शाहरुख खान के नाम पर पाकिस्तान की खिलाफत का बहाना करके ये अलगाववादी दरअसल पाकिस्तान का ही काम कर रहे हैं। पंजाब के भिंडरावाले के समान ये भी अपने खालिस्तान की संभावना की तलाश में निकल चुके हैं। वक्त आने पर इस देश की कमजोर राजनीति इनके साथ ही खड़ी हो जाएगी। शाहरुख खान बेचैन होकर पूछ रहे हैं कि कोई बताए कि उनकी गलती क्या है? ये अलगाववादी इशारों से उन्हें पाकिस्तानी घोषित कर रहे हैं। मुस्लिम समाज से ऐसा टुच्चा मजाक बहुत दिनों से चल रहा है। ऐसे लोग भारत में राष्ट्रवादी मुस्लिम समाज के सबसे बड़े दुश्मन हैं। ये दाऊद के खिलाफ बयान नहीं देते, क्यों? क्योंकि दोनों का एक ही लक्ष्य है। इन्हें उसी तरह सत्ता चाहिए जैसे मीर जाफर को चाहिए थी। दुनिया के किस देश में आप इन मराठी क्षेत्रवादियों के समान देश के विरुद्ध बयान देकर पूरी रंगबाजी से राजनीति कर सकते हैं? शायद कहीं नहीं। हम भिंडरवाले पैदा करते हैं। फिर उससे डरकर उसे सिर-माथे पर बैठाते हैं। राजनीति का अपराधीकरण देश को तोड़ रहा है। हमारे पास कोई समाधान नहीं है। वर्ष 1973 में प्रशासनिक आदर्शवाद से प्रेरित होकर जिला स्तर पर न्यायिक प्रशासन को जिला प्रशासन के क्षेत्राधिकार से बाहर करने के लिए हमने सीआरपीसी में व्यापक बदलाव किए। परिणाम क्या हुआ? जिला प्रशासन की पकड़ अपराधियों पर कमजोर पड़ गई।
कलक्टर के प्रति जवाबदेही से मुक्त होकर पुलिस क्रमश: खुदमुख्तारी की शक्ल अख्तियार करती गई और कलक्टर की हैसियत गिरती चली गई। उसी अनुपात में अपराधी सत्ता की ओर बढ़ने लगे क्योंकि उन्हें अपराधी कहने वाला कोई जिम्मेदार अधिकारी था ही नहीं। जिला मजिस्ट्रेट ही वह प्रशासनिक अधिकारी है जो जिले की शाति व्यवस्था, नागरिकों, नागरिक सेवाओं के लिए जिम्मेदार रहा है। मामूली अपराधी बेरोकटोक बड़ा बनते गए। उनके गुट खड़े होते गए। वे आज बड़े-बड़े माफियाओं की शक्ल में हैं। क्या किसी ने सोचा है कि 1973 के बाद राजनीति में अपराधियों की इतनी बाढ़ क्यों आ गई है। अपराधियों को मालूम ही नहीं कि राजनीतिक आदर्शवादियों ने सीआरपीसी में 1973 में पलीता लगाकर उन पर कितना बड़ा एहसान किया है। 1973 से पहले कलक्टर का वर्चस्व जिले में अपराधियों की औकात नहीं बढ़ने देता था कि वे चुनावी राजनीति की सोच भी सकते। अब हमें समस्या के समाधान के बजाय उसके बड़े होने का इंतजार रहता है। कानून के प्रति जवाबदेही मजाक की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। अपराध के रास्ते से सत्ता की सीढि़या चढ़ना आसान हो जाने के बाद वे लोग सत्ता की चौखट तक आ पहुंचे जिनके लिए संविधान निर्माताओं के स्वप्न बेमानी हैं। हेरोइन बेचने वाले, नकली नोट छापने वाले जब सत्ता के गलियारों में मजबूती से आ जाएंगे तो वे देश किसके लिए चलाएंगे?
अंधेरे में टटोलती तिल-तिल कर अंत की ओर बढ़ती हमारी दिशाहीन राजनीति को मालूम नहीं कि इस सुरंग से निकलने का रास्ता कहां है। जिन्ना हमारे इतिहास के पहले राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सत्ता के लिए देश को खंडित करा दिया। खालिस्तानी भिंडरवाले, उल्फा अलगाववादी, मराठी अलगाववादी इसी जिन्ना मानसिकता की अगली पीढि़यां हैं। टीवी पर इनकी शक्लें देखकर एक प्राइमरी का बच्चा क्रोध में मुट्ठियां भींच कर कांपने लगता है और पूछता है कि कोई ऐसा कानून क्यों नहीं है जो भारत का साथ दे सके। गद्दारों को बर्दाश्त करने के अभ्यस्त इस देश में हमें उन लाखों बच्चों के बड़े होने का इंतजार है।
[आर विक्रम सिंह: लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं]
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