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भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बेलगाम होती मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए कैश रिजर्व अनुपात में 75 बेसिक अंकों की वृद्धि की गई है, जो अब 5 प्रतिशत से बढ़कर 5.75 प्रतिशत हो जाएगी। यह दो चरणों में लागू होगी- पहला चरण 50 बेसिक अंकों का अगले 13 फरवरी से और 25 बेसिक अंकों का दूसरा चरण 27 फरवरी से लागू होगा। बाकी किसी भी दर में कोई परिवर्तन नहीं किया गया और यथास्थिति बरकरार रखी गई है। इस कदम से 36000 करोड़ रुपये की तरलता भारतीय रिजर्व बैंक को हस्तातरित हो जाएगी। चूंकि बैंकों में तरलता अब भी अधिक है अतएव आम ग्राहकों पर इस कदम का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। साथ ही बैंकों को भी इस कदम के मद्देनजर व्याज दरों में वृद्धि करने की कोई ेसंभावना दिखाई नहीं पड़ती। भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के एक प्रतिबिंब के रूप में देखी जा सकती है। इसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था में उत्पादकता और क्षमता में वृद्धि करना होता है। वर्तमान समय में जब वित्तीय घाटा भी बढ़ा हुआ है और मुद्रास्फीति निरंतर बढ़ रही है तब कैश रिजर्व अनुपात में 75 बेसिक अंकों की वृद्धि करके भारतीय रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने का एक संकेत दिया है।
चूंकि इस मौद्रिक नीति में रेपो और रिवर्स रेपो में कोई बदलाव नहीं किया गया है तो हम इसे विकास उन्मुख भी कह सकते है। इसी क्रम में केंद्रीय बैंक ने विकास दर को 7.50 प्रतिशत पर रहने का अनुमान लगाया है, जो एक सकारात्मक संदेश है। इस सकारात्मक संदेश से विदेशी संस्थागत निवेश पर लंबी अवधि में कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़ने की संभावना है। केंद्रीय बैंक की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उसने ब्याज दरों में कोई वृद्धि नहीं की है। यह अर्थव्यवस्था के लिए एक शुभ संकेत है। यदि हम पिछले अनुभव की बात करें तो वर्ष 1990-91 जो आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का शुरुआती वर्ष था, से लेकर 2008-09 तक ब्याज दरों और विकास दरों में एक प्रत्यक्ष संबंध देखा गया है। यह पता चलता है कि जब-जब ब्याज दरों में वृद्धि की गई है तब-तब विकास दर में भी गिरावट आई है। ब्याज दरों में वृद्धि से कृषि, विनिर्माण, व्यापार और सेवाक्षेत्र में लगे उद्यमियों को अधिक ब्याज अदा करने होते हैं, जिससे उनकी लागत बढ़ जाती है। इन स्थितियों में निवेश, उत्पादन और आपूर्ति, तीनों घट जाते हैं, जिससे मुद्रास्फीति की संभावना भी बढ़ जाती है। कुछ उद्यमी ऐसे भी होते हैं जो बढ़ी ब्याज दरों एवं उनसे बढ़ने वाली अन्य लागत को भी उपभोक्ताओं के नाम मढ़ देते हैं। उपभोक्ताओं की अपेक्षाएं यही होती हैं कि उनको सस्ते दर पर चीजें मुहैया हो और उन्हें संतुष्टि मिले। मूल्यों में वृद्धि हो जाने से बहुत से ग्राहक अपनी आवश्कताओं को भविष्य के लिए टाल देते हैं। इस तरह माग में भी कमी आने लगती है।
निवेश में ठहराव होने और उत्पादन घटने से रोजगार में कमी आती है। औद्योगिक उत्पादन, उत्पादकता घटती है और क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में ब्याज दरों में कमी आवश्यक है। आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को तब तक सफल नहीं कहा जा सकता है जब तक इनसे रोजगार सृजन नहीं होता। यहां हमें ब्रिटेन के उदाहरण से सीख लेनी होगी जब मार्गरेट थैचर ने अस्सी के दशक में मौद्रिक नीति में कड़ाई कर दी थी। इससे लाखों लोग बेरोजगार हो गए थे। हमारे नीति-नियंताओं ने मौद्रिक नीति में यथास्थिति बरकरार रखकर भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था को एक टानिक प्रदान किया है। कुछ अर्थशास्त्रियों की राय में कैश रिजर्व अनुपात बढ़ने से अगले कुछ महीनों में ब्याज दरों के बढ़ने का संकेत है, परंतु इस बात में कोई दम नहीं लगता।
जहां तक खाद्यान्नों और खाद्य वस्तुओं में मुद्रास्फीति का प्रश्न है, यह एक गंभीर मुद्दा है, परंतु इस मुद्दे के पीछे सच्चाई यह है कि यह माग और पूर्ति का असंतुलन है। हमारी जनसंख्या बढ़ रही है, लेकिन उसी अनुपात में हमारा कृषि उत्पादन और उत्पादकता नहीं बढ़ रही है। आज चीन की विकास दर भारत से इसीलिए ज्यादा है कि चीन ने कृषि पर आधारित जनसंख्या को शहरों की तरफ आकर्षित करने में सफलता प्राप्त कर ली है, जबकि भारत में हम ऐसा करने में सफल नहीं हो पाए हैं। अब भी 60 प्रतिशत लोग कृषि पर अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं। अतएव लंबी अवधि के लिए हमें खेती से लोगों को उद्योगों की तरफ ले जाना होगा, परंतु हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या ढांचागत विकास की है। जब तक ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध नहीं होतीं और नए-नए शहरों का निर्माण नहीं होता तब तक खेती से लोगों को उद्योगों की तरफ ले जाना संभव नहीं है।
[राजेंद्र सिंह: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
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