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अवसर और चुनौतियां

संपादकीय ब्लॉग
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गणतंत्र दिवस की 60वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने राष्ट्र के नाम संदेश में अन्य अनेक बातों के साथ इसका भी उल्लेख किया कि यह दशक भारत के लिए निर्णायक है। उनके इस विचार से असहमत होने का प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि आज सारा विश्व भारत की तरफ देख रहा है और यह मान भी रहा है कि उसका भविष्य उज्ज्वल है। चूंकि चीन लोकतांत्रिक तौर-तरीकों की अनदेखी कर अपनी अर्थव्यवस्था के विकास में जुटा हुआ है और सरकारी फैसलों में आम आदमी की कोई भागीदारी नहीं है इसलिए विश्व के तमाम अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि कुछ समय बाद आर्थिक प्रगति की उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाएगी। इसके विपरीत भारत के बारे में यह धारणा है कि लोकतंत्र होने के नाते वह अपने विकास में खड़ी होने वाली बाधाओं को दूर करने में सक्षम होगा। इस आशावादी दृष्टिकोण के पीछे पर्याप्त आधार हैं, लेकिन कुछ विशेषज्ञ यह भी मान रहे हैं कि भारत हाथ आए अवसर को गंवा भी सकता है।

यदि राष्ट्रपति के भाषण पर गौर किया जाए तो यह स्पष्ट होगा कि उन्हें भी देश के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का भान है और उनकी ओर उन्होंने संकेत भी किया। उदाहरणस्वरूप उन्होंने कहा कि अपनी कमियों को दूर करने और अपने गुणों को एक ऊर्जावान शक्ति में बदलने के दौरान हमें पूरी तरह जागरूक होना चाहिए कि हमें क्या सहेज कर रखना है और क्या बदलना है? उन्होंने प्रत्येक नागरिक को अपना कार्य जिम्मेदारी, अनुशासन और सहयोग की भावना के साथ करने की आवश्यकता भी जताई। विडंबना यह है कि इन गुणों का अभाव उन लोगों के बीच भी नजर आ रहा है जो राष्ट्र का नेतृत्व कर रहे हैं और जिनका आचरण आम नागरिकों को प्रभावित करता है। अनुशासनहीनता तो एक प्रकार के राष्ट्रीय रोग में तब्दील हो चुकी है। प्राय: सार्वजनिक जीवन में भारतीय बहुत कम अनुशासन का परिचय दे पाते हैं। बात चाहे भीड़ भरे स्थलों में अराजक व्यवहार की हो अथवा हर जगह बढ़ते अतिक्रमण की या फिर बेकाबू होते भ्रष्टाचार की-इस सबके पीछे गैर अनुशासित मानसिकता ही जिम्मेदार है। इससे भी निराशाजनक यह है कि विधानमंडलों में हमारे जनप्रतिनिधियों का आचरण यह संदेश नहीं देता कि इस देश का नेतृत्व अनुशासित एवं जिम्मेदार लोगों के हाथों में है। इन स्थितियों में गुणवान, चरित्रवान और दूसरों के प्रति मैत्री भाव रखने वाली युवा पीढ़ी का सामने आना आसान नहीं। ऐसी पीढ़ी का निर्माण तो तभी संभव है जब उसका नेतृत्व करने वाले लोगों का आचरण अनुकरणीय हो। दुर्भाग्य से हमारे औसत राजनेता न केवल राजसी ठाठबाट से रहते हैं, बल्कि खुद को नियम-कानूनों से परे भी मानते हैं। विधायक और सांसद बनते ही उनका व्यक्तित्व कुछ इस तरह बदल जाता है जैसे वे राजा बन गए हों। लोकतंत्र में न तो राजाओं के लिए कोई स्थान है और न ही उनकी जैसी मानसिकता वाले लोगों के लिए।

यह एक विडंबना है कि जब विश्व भारत को एक उभरती हुई ताकत के रूप में देख रहा है तब ऐसा लगता है कि विकसित देश बनने के लिए इस देश की जनता और साथ ही उसके नेतृत्व को जो कड़ी परीक्षा देनी है उसके लिए पर्याप्त तैयारी नहीं की जा रही। निश्चित रूप से हमारे नेताओं को यह अनुभूति होनी चाहिए कि यह दशक भारत का दशक तभी बन सकता है जब उन लंबित कार्याे को प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाए जो अब तक संपन्न हो जाने चाहिए थे। यह ठीक नहीं कि शिक्षा के ढांचे को सुधार के लिए संसाधन होते हुए भी ठोस कदम नहीं उठाए गए। एक के बाद एक विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों-सुझावों के बावजूद शिक्षा पर खर्च बढ़ाने से इनकार किया जा रहा है। यह विचित्र है कि भारत शिक्षा पर अभी भी सकल घरेलू उत्पाद का 4 प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं कर पा रहा, जबकि विकसित देशों की सफलता का मूल आधार उनका शिक्षा का ढाचा है। कोठारी आयोग ने करीब 40 वर्ष पहले यह कहा था कि शिक्षा पर कम से कम 6 प्रतिशत धन खर्च किया जाना चाहिए, लेकिन कोई नहीं जानता कि ऐसा करने में क्या कठिनाई है? हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था तो देश को भारत और इंडिया में विभाजित कर रही है। निराशाजनक यह है कि शिक्षा के ढांचे में सुधार के लिए अभी तक केंद्र और राज्यों के बीच आम सहमति भी नहीं कायम हो पाई है। प्रत्येक राज्य अपनी तरह से शिक्षा के नियम-कानून के साथ-साथ पाठ्यक्रम तय करने में लगा हुआ है।

राष्ट्रपति ने अपने भाषण में दूसरी हरित क्रांति शुरू करने पर जोर देते हुए यह कहा कि देश को ग्रामीण अर्थव्यवस्था की क्षमता का उपयोग करने के उपाय करने चाहिए। इसका सीधा मतलब है कि अभी ऐसा नहीं हो रहा और यह यथार्थ के निकट भी है। इसके दुष्परिणाम सामने हैं। दूसरी हरित क्रांति शुरू होना तो दूर रहा, कृषि और किसानों की बुनियादी समस्याओं का समाधान करने से भी बचा जा रहा है। क्या यह किसी से छिपा है कि अनेक महत्वाकांक्षी सिंचाई परियोजनाएं दशकों से लंबित हैं? दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस मामले में जैसा रवैया केंद्र का है उससे खराब राज्य सरकारों का। कथित किसान नेताओं की सक्रियता के बावजूद देश में कृषि और कृषकों की हालत खराब है। अब तो स्थिति यह है कि जब तब खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो जाता है। इस पर आश्चर्य नहीं कि खाद्यान्न वितरण की दोषपूर्ण और भ्रष्ट प्रणाली के चलते देश में कुपोषित महिलाओं और बच्चों की संख्या कई अफ्रीकी देशों से भी अधिक है। यह शुभ संकेत नहीं कि भारत अपने लोगों का पेट भरने लायक अन्न भी नहीं उपजा पा रहा है और कृषि के आधुनिकीकरण की जैसी अनदेखी हो रही है उससे तो यह लगता है कि आने वाले समय में भी हालात बदलने वाले नहीं। आज यह कहना कठिन है कि भारत इस दशक में खेती के उन तौर-तरीकों को अपना सकेगा जो विकसित देशों और यहां तक कि चीन ने भी अपना लिए हैं।

राष्ट्रपति ने अपने संबोधन के जरिये सौहार्द एवं सहनशीलता की महत्ता भी बताई। नि:संदेह इन गुणों को अपना कर ही विभिन्नताओं से भरे हुए इस देश को एकजुट होकर आगे ले जाया जा सकता है, लेकिन समस्या यह है कि समाज को दिशा देने वाली राजनीति ही सौहार्द और सहनशीलता का परिचय देने से इनकार कर रही है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल समाज को बांटने के लिए नित नए तरीके अपना रहे हैं। भारतीय राजनीति जाति, मजहब, क्षेत्र, भाषा के आधार पर ही अधिक संचालित है। मराठी भाषा और अलग राज्य तेलंगाना के नाम पर मुंबई और हैदराबाद में जैसी राजनीति हो रही है वह शर्मसार करने वाली है। ऐसी राजनीति समाज में सौहार्द और सहनशीलता का विकास नहीं कर सकती। इसमें संदेह है कि हमारे राजनेता राष्ट्रपति के भाषण पर चिंतन-मनन करेंगे, क्योंकि अब वे यह संकेत भी देने लगे हैं कि उनका एक महत्वपूर्ण कार्य सिर्फ उपदेश देना भी है। इसका एक नमूना गणतंत्र दिवस पर ही तब मिला जब अनेक नेताओं ने चुनाव आयोग की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में उन सुधारों की आवश्यकता बताई जो मूलत: खुद उन्हें करने हैं। गणतंत्र दिवस पर जब हम उन शहीदों को याद करते हैं जिनके कारण हम स्वतंत्र हैं तो निष्ठावान और संकल्पबद्ध नेतृत्व की कमी कहीं अधिक महसूस होती है और यही कारण है कि इसे लेकर संदेह उत्पन्न होता है कि यह दशक भारत का हो सकेगा।

[देश को नई दिशा देने के लिए जो कुछ अपेक्षित है उसे रेखांकित कर रहे हैं संजय गुप्त]

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