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शांति की अधूरी आस

संपादकीय ब्लॉग
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21वीं सदी के नए दशक की शुरुआत होते ही पहली जनवरी की सुबह एक अंग्रेजी अखबार के पहले पेज से उछलकर मेरे दिमाग में बिजली की तरह लव पाकिस्तान शब्द कौंध गए। बहुत से लोगों को ये शब्द एक साथ देखना बड़ा अजीब लगता होगा। जब हम अपने पड़ोसियों के बारे में सोचते हैं तो आतंक, नफरत और कट्टरता जैसे शब्द ही हमारे दिमाग में आसानी से बैठ पाते हैं। ये शब्द पढ़ते ही मुझे लगा कि क्या कोई मजाक तो नहीं कर रहा है। मेरे भीतर का स्वप्नदृष्टा, जो सिनेमा के धरातल पर पाकिस्तान-भारत के बीच सेतु बनाने की उधेड़बुन में लगा रहता है, उम्मीद से भर गया कि मुंबई हमलों के बाद अब तक के सबसे खराब दौर से गुजर रहे भारत-पाक संबंध फिर से पटरी पर आने लगे हैं। यह देखने में आ रहा है कि पिछले कुछ सालों के दौरान जब भी मीडिया की ओर से बेहतर उद्देश्य के लिए प्रतिबद्ध प्रयास शुरू होते हैं तो चीजे बदलने लगती हैं।

एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि हमें शांति की अराजनीतिक कोशिशों पर एकदम उत्साहित होने की जरूरत नहीं है। जोर-शोर से शुरू किया गया यह अभियान मीडिया घराने के लिए एक व्यावसायिक सौदे से अधिक नहीं है। आपको यह अंदाज भी होना चाहिए कि ऐसी जो कोशिशें की जा रही हैं उनके पीछे अमेरिका है। क्या आप जानते हैं कि इस परियोजना को दोनों सरकारों का मूक अनुमोदन प्राप्त है? इसीलिए इन लोगों ने भारत-पाक शांति प्रक्रिया पर बोलने के लिए फिल्म इंडस्ट्री से अनेक लोग जुटा लिए हैं, जो अन्यथा इस विषय पर एक शब्द भी नहीं कहते। वास्तव में नफरत के इस दौर में बेहतर भविष्य की बात करने के लिए साहस औ जज्बे की जरूरत पड़ती है। यह हर किसी के बूते की बात नहीं है। उनकी इस बात ने मानो मेरे अंदर बने उत्साह के गुब्बारे में सूई चुभो दी। एक क्षण में ही शांति प्रक्रिया को लेकर मेरा उत्साह ठंडा हो गया। ईमानदारी से कहूं तो मैं यह सोचने लगा था कि मीडिया समूहों ने शांति प्रक्रिया को क्षति पहुंचाई है, लेकिन अब अचानक उनका हृदय परिवर्तन हो गया लगता है और इसका ही परिणाम है कि शांति के लिए नए सिरे से प्रयास आरंभ हो गए हैं। अगर वह स्तंभकार सही कह रहे थे कि इस परियोजना के पीछे अमेरिका का हाथ है तो मैं यह सोचने को मजबूर हो गया कि लव पाकिस्तान के इस अभियान के पीछे उनका क्या निहितार्थ है?

पिछले कई साल से भारत और पाकिस्तान में यह आम धारणा विद्यमान रही है कि अमेरिका कभी भी दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण संबंध नहीं चाहेगा। इसलिए नहीं चाहेगा, क्योंकि शांति उसकी आर्थिक नीतियों के लिए प्रतिउत्पादक है। यथार्थ यह है कि युद्ध उद्योग ने ही अमेरिका को महाशक्ति बनाया है। वह शुरू से युद्धोन्माद फैलाकर विभिन्न देशों को हथियार और अन्य सैन्य साजोसामान बेचकर मुनाफा कमाता रहा है। भारत और पाकिस्तान के बीच शांति होने से जाहिर है कि इस मुनाफे पर असर पड़ेगा। ऐसे में प्रश्न यह उभरता है कि अब उसकी सोच में बदलाव क्यों आ गया है? इस बीच एक परिवर्तन यह हुआ है कि वाशिंगटन, नई दिल्ली और इस्लामाबाद, तीनों ही पाकिस्तान की धरती से सक्रिय जिहादियों से समान रूप से भयाक्रांत हो गए हैं। आतंकवाद का जितना खतरा भारत और पाकिस्तान के ऊपर है उतना ही अमेरिका पर भी है। दूसरी ओर जिहादियों का मानना है कि हाल ही में पाकिस्तानी सेना द्वारा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में उनकी सुरक्षित पनाहगाह पर हमला करने से उनका अस्तित्व संकट में पड़ रहा है। जिहादी अपने आपको बचाए रखने के लिए नई रणनीति पर काम कर रहे हैं। इन जिहादियों का स्पष्ट मत है कि पश्चिमोत्तर भाग में पाकिस्तानी सेना की गतिविधियां कम करने के लिए इसे भारत से लगती पूर्वी सीमा पर उलझाया जाए। जिहादी भलीभांति जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव के लिए सबसे आसान उपाय भारत में बड़े पैमाने पर आतंकी हमले करना है जिसकी प्रतिक्रिया में भारत पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई कर सकता है और सीमा पर परमाणु टकराव की नौबत आ सकती है। भारत इस प्रकार के हालात के लिए खुद को तैयार कर रहा है। उसने यह स्पष्ट कहा भी है कि वह किसी भी आतंकी हमले का सामना करने के लिए तैयार है। वैसे भारत दुविधाग्रस्त भी है कि पाकिस्तान में कोई भी सैन्य कार्रवाई, वह चाहे कितने ही सीमित हमलों के रूप में ही क्यों न हो, से जिहादियों के ताकतवर होने का अंदेशा है, जो कुल मिलाकर पाकिस्तान को और अस्थिर कर सकते हैं। मुंबई हमलों के बाद भी भारत इस मुद्दे पर कशमकश से गुजरा था और यह निश्चय नहीं कर पाया था कि एक और बड़े हमले की स्थिति में उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। किसी भी सूरत में, सीमा पर संकट की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इस आग को बुझाना अमेरिका पर निर्भर करता है। भारत-पाकिस्तान सीमा पर टकराव से पाकिस्तान अलकायदा और तालिबान के बजाए अपनी शक्ति को भारत के खिलाफ लगाएगा और अमेरिका की योजनाएं गड़बड़ा जाएंगी।

अगर भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध की नौबत आ जाती है तो अमेरिका के सामने नई चुनौतियां आ जाएंगी। इसलिए इस बर्बादी को रोकने के लिए अमेरिका इस रक्तरंजित क्षेत्र में शांति के प्रयासों में जुट गया है, किंतु अगर अमेरिका जिहादियों को काबू करने में कामयाब हो गया तो शत्रुओं में बदल गए इन दो भाइयों का क्या रुख होगा? क्या इसका यह अर्थ होगा कि अमेरिका के युद्ध उद्योग को पोषित करने के लिए ये दोनों फिर से नफरत का खेल खेलना शुरू कर देंगे? क्या फिर नफरत का दौर शांति के मौसम में बदल जाएगा? अगर यह होता है तो इसे एक त्रासदी ही कहा जा सकता है।

[महेश भट्ट: लेखक जाने-माने फिल्मकार हैं]

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