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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का पद गठित होने के 11 वर्ष बाद उसकी उपयोगिता के संदर्भ में जो बहस आरंभ हो गई है वह यह बताती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के विचार के प्रति हमारी समझ कितनी अपर्याप्त है। इतिहास में पहली बार हमारे देश ने आठ प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल की है। हमारी आबादी 120 करोड़ के आसपास है और यह माना जा रहा है कि अगले तीन दशकों में हम दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाले देश हो जाएंगे। इसी तरह यह संभावना भी जताई जा रही है कि अगले बीस वर्र्षो में भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा बाजार होगा। भारत की यह प्रगति अन्य महाशक्तियों के विपरीत लोकतांत्रिक शासन में हुई है। यह सच है कि अन्य सभी महाशक्तियों ने लोकतंत्र को अपनाने के पहले प्रगति की। स्पष्ट है कि दूसरे देशों के विपरीत भारत की प्रगति ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए चिंता उत्पन्न नहीं की। वर्तमान उदाहरण चीन का ही लें, वह जिस ढंग से आगे बढ़ रहा है उससे अंतरराष्ट्रीय जगत में चिंताएं ही उत्पन्न हो रही हैं।
चूंकि दुनिया में लोकतंत्र एक प्रभावशाली प्रणाली है और भारत एक ऐसा ही देश है इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत की प्रगति के प्रति सद्भावना देखी जा सकती है। वैसे यह मान लेना एक भारी भूल होगी कि भारत की आगे की प्रगति अवरोध-प्रतिरोध के बिना हो सकेगी। ऐसी शक्तियां हैं जो गरीबी उन्मूलन के रास्ते में रुकावटें खड़ी करेंगी और लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता तथा बहुलवाद सरीखे मूल्यों को क्षति पहुंचाने की हरसंभव कोशिश करेंगी। मजहबी और वैचारिक कट्टरता, आस-पास के असफल होते राष्ट्र, संगठित अपराध, राजनीति का अपराधीकरण-ये सभी मिलकर भारत के समक्ष गंभीर खतरे और चुनौतियां उत्पन्न कर रहे हैं। भारत को इन चुनौतियों से पार निकालना वास्तव में राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन का विषय है। दुर्भाग्य से हमारे उच्च वर्ग तथा राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान में अधिकांश लोगों ने समस्या की जटिलता और गंभीरता की पर्याप्त समझ नहीं विकसित की है। प्रधानमंत्री पर यह जिम्मेदारी है कि वह एक शक्तिशाली, पंथनिरपेक्ष और भारी-भरकम आबादी वाले देश को आगे की राह पर ले जाएं, लेकिन उन्हें इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए समर्पित सहयोगियों की जरूरत है। इसी मकसद के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार है। प्रगति के बडे़ लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कैबिनेट, सशस्त्र सेनाएं, सुरक्षा बल, नौकरशाही, वैज्ञानिक प्रतिष्ठान और पूरा का पूरा निजी क्षेत्र, औद्योगिक जगत, कृषि क्षेत्र तथा विभिन्न तरह की सेवाएं भी हैं।
इन सभी को लक्ष्य की ओर एक दिशा में केंद्रित रखना देश के शासन के समक्ष चुनौती होती है। क्रियान्वयन, योजनाओं का निर्माण तथा प्रबंधन के बीत अंतर को स्पष्ट रूप से समझना जरूरी है। एक प्रयोगधर्मी नियोजक तथा दक्ष प्रबंधक को आगे की ओर देखना होता है। उसे संभावित स्थितियों का विश्लेषण और आकलन करना होता है और उसी के अनुरूप अपनी रणनीति बनाती होती है। इसमें यह जरूरी है कि वह क्षति पहुंचाने में सक्षम तत्वों की सक्रियता के प्रति सतर्क रहे। राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में यह प्रबंधन नेतृत्व के शीर्ष स्तर से ही संभव है-अर्थात प्रधानमंत्री और उनकी सबसे मजबूत टीम के द्वारा। भारत के लिए यह नया अनुभव है और अब तक इसका इस्तेमाल नहीं किया गया है। वास्तव में यही राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रबंधन प्रक्रिया का केंद्र-बिंदु है। इस प्रबंधन की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता वर्तमान स्थिति के प्रति जागरूकता तथा भविष्य की संभावनाओं का तार्किक आकलन है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भविष्य की संभावनाएं अल्पकालिक, मध्यम तथा दीर्घकालिक आधार पर हो सकती हैं। इस आकलन के आधार पर चुनौतियों से निपटने के लिए व्यापक कदमों की रूपरेखा बनाई जाती है और अनुकूल स्थितियों का अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश की जाती है। वर्तमान और भविष्य के आकलनों के प्रति पूरी सरकार में समझबूझ होनी चाहिए और जो निष्कर्ष सामने आते हैं उन्हें चुनौती देने को पूरा प्रोत्साहन मिलना चाहिए। यह एक सतक प्रक्रिया है, लेकिन भविष्य के लिए नियोजन पूरी तरह सरकार में आमसहमति के आधार पर होना चाहिए। आकलनों और योजनाओं की नियमित अंतराल में समीक्षा आवश्यक है। जब ऐसा किया जाता है तभी खामियों को सुधारने का मौका मिलता है। यही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार का कार्य है। उसकी जिम्मेदारी विशिष्ट है-बिना किसी कार्यकारी कामकाज की जिम्मेदारियों में बंधे। अभी तक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने अपनी भूमिका को प्रबंधन के लिहाज से नहीं देखा है। इसके बजाय उनकी चिंता दिन-प्रतिदिन की समस्याओं के समाधान में रही है।
अमेरिका के सामरिक विशेषज्ञ जार्ज टैनहम ने कहा था कि भारत के पास सामरिक संस्कृति नहीं है। वह सही थे। प्रधानमंत्री के समक्ष तात्कालिक चुनौती सरकार के भीतर ऐसे लोगों की टीम बनाना है जो पूर्णकालिक तौर पर देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रबंधन का कामकाज संभालें और इससे संबंधित नए विचार तथा परिकल्पनाएं सामने रखें। हमें ऐसे लोगों की भी जरूरत है जो राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी, सांस्कृतिक और सामरिक रूप से अंतरराष्ट्रीय स्थिति का बारीकी से अध्ययन कर सकें और अपने देश के पक्ष तथा विपक्ष के पहलुओं को सामने ला सकें। ऐसा होने पर हमारे नीति-नियंताओं को अधिकतम लाभ के लिए अपनी नीतियों को समायोजित करने में सहूलियत मिलेगी। हमें भविष्य की योजनाओं के संदर्भ में शोध के लिए अनेक विचार भी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर नई नियुक्ति हो जाने के बावजूद यह सब इतनी आसानी से नहीं हो जाएगा।
[के. सुब्रह्माण्यम: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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