Menu
blogid : 133 postid : 52

लाल किले के महारथी

संपादकीय ब्लॉग
संपादकीय ब्लॉग
  • 422 Posts
  • 640 Comments

मुझे अच्छी तरह याद है कि कोलकाता में 1960 और 70 के शुरुआती दौर में कांग्रेस की तरफ झुकाव वाले परिवार में बढ़ते हुए आस-पास ज्योति बसु के लिए कैसी तीखी बातें सुनने को मिलती थीं। बसु के लिए उभरने वाले आलोचना के वे स्वर वास्तव में उनके राजनीतिक कौशल की सराहना ही होते थे। भारी उथलपुथल वाले उन दिनों में कांग्रेस धीरे-धीरे अपनी पकड़ गंवा रही थी और पश्चिम बंगाल लाल किले में रूपांतरित हो रहा था। तब ज्योति बसु ही विवादों की धुरी थे। जनाधार वाले सबसे मजबूत नेता बसु को बहुत से लोग पश्चिम बंगाल में बुराइयों की जड़ भी बताते थे, जिन्होंने स्थिर और शांत पश्चिम बंगाल को अनिश्चितता और अराजकता के कगार पर पहुंचा दिया था। ज्योति बसु की नम्र और भद्र राजनेता की छवि उस तीखे क्रांतिकारी नजरिए के लिए अटपटी ही है जो दुनिया को उलट-पलट देने की बात करती है। बसु ने 1996 में भारत के पहले बंगाली प्रधानमंत्री बनने का अवसर गंवा दिया था-और वह भी सर्वसम्मति से चुने गए उम्मीदवार के रूप में, किंतु उनकी छवि एक ऐसे विनम्र राजनेता के रूप में सामने आई जो आजादी से पहले बैटिंग करने उतरा और छह दशक से भी अधिक समय तक क्रीज पर डटा रहा। 1962 में चीन के प्रति सहानुभूति रखने के कारण डा. बीसी राय ने ज्योति बसु को नजरबंदी में रखा था। 2004 में वह एक वरिष्ठ राजनेता के रूप में सामने आए जब उन्होंने केंद्र में कांग्रेस को समर्थन देने की वकालत की। कुछ ही ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्होंने ज्योति बसु जितना जीवंत और उतार-चढ़ाव वाला राजनीतिक जीवन जिया होगा। 1946 में अविभाजित बंगाल की विधानसभा में चुने जाने के बाद से वह बंगाल की राजनीति में निर्णायक शक्ति बने रहे। 1952 से 1967 के बीच कांग्रेस वर्चस्व के दौरान वह विपक्ष के नेता रहे। वह वाम मोर्चा की दो सरकारों में उप मुख्यमंत्री रहे और 1977 से 2000 तक मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान बनाया।

इतिहास और अगली पीढ़ी इस बात का आकलन बेहतर तरीके से कर पाएगी कि ज्योति बसु ने अपने रास्ते में आने वाले अवसरों का किस तरह लाभ उठाया। क्या उन्होंने कुलीन घरानों के उन नौजवानों का आदर्शवाद अपनाया जो इंग्लैंड में करियर तराशने गए थे और क्रांति का झंडा लेकर वापस लौटे? और क्या उन्होंने हैरतअंगेज तरीके से अपनी विरासत को सहेजते हुए उसकी गरिमा और मान को बनाए रखा? या फिर अशोक मित्रा की छवि का इस्तेमाल करते हुए क्या बसु एक कम्युनिस्ट से अधिक बंगाली भद्रलोक थे? ऊपरी स्तर पर जवाब स्पष्ट हैं। ज्योति बाबू ने वर्ग संघर्ष हवाई चप्पलें या सलवटों वाला कुर्ता-पायजामा पहनकर वर्ग संघर्ष की लड़ाई नहींलड़ी। वह हमेशा खुद को सही और श्रेष्ठ मानते रहे। चमक-दमक में तो नहीं, किंतु सुरुचिपूर्ण बेहतर जीवन में उनका यकीन जरूर था। और सबसे बड़ी बात यह कि वह गर्मियों की छुट्टियां लंदन में बिताना पसंद करते थे। ज्योति बाबू पारदर्शी थे, वह दिखावे में यकीन नहीं रखते थे। इस संजीदगी ने ही ज्योति बाबू को एक ऐसे राज्य का प्रिय बनाया जहां माकपा युगांतरकारी परिवर्तनों की वाहक से बंगाली क्षेत्रीय आग्रहों की पोषक बनकर रह गई। विचारधारा की कमियों को दूर करने की उनकी इच्छा के कारण ही वह अच्छे-बुरे हर तरह के समय में पार्टी में सबके चहेते बने रहे। ज्योति बसु 1977 में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने। उस समय राज्य दो संकटों से घिरा था। पहला, एक दशक की नक्सलवादी हिंसा और कांग्रेस की नीतियों के कारण आर्थिक तंगी और दूसरा नागरिक समाज में सुरक्षा के अधिकार की तड़प। बसु जानते थे कि अगर बंगाल खुद को लाभकारी निवेश के गंतव्य के रूप में स्थापित करे तो सुधार संभव है। तकलीफ के साथ वह सजग थे कि अगर बंगाली कार्य संस्कृति और चौबीसों घंटे राजनीतिक गतिविधियों में उलझे रहने की प्रवृत्तिसे बचा जाए तो आर्थिक पुनरुद्धार संभव है।

यह सोच उनके साथियों की सोच से मेल नहीं खाती थी। शुरू में पार्टी ने जोरदार भूमि सुधार किया और अपनी शक्तियों का विकेंद्रीकरण करते हुए देहात पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई। पांच साल के भीतर यह कूटनीति अंतिम परिणति तक पहुंच गई। हालांकि इस बीच राजनीतिक लाभांश बराबर मिलता रहा। जब उत्पादन और सेवा के क्षेत्र में पुनरुत्थान की बारी आई तो मुख्यमंत्री ने पार्टी के भीतर खुद को अकेला खड़े पाया। सरकार ने कुछ ऐसे कदम उठाए जिनसे बंगाल दशकों पिछड़ गया। इन कदमों में सरकारी स्कूलों में कक्षा पांच तक अंग्रेजी भाषा न पढ़ाने और संस्थाओं का राजनीतिकरण करना शामिल है। ट्रेड यूनियनों की उग्रता और पावर कटों के कारण बड़ी संख्या में लघु और मध्यम औद्योगिक इकाइयों पर ताले पड़ गए। निवेशकों ने बंगाल से मुंह मोड़ लिया। बंगाल की कुशलता बंद के आयोजन तक सिमटकर रह गई।

ज्योति बसु अपनी ताकत के बल पर खुद को बंगाली मुखिया घोषित करते हुए सुधारवादी एजेंडे को लागू कर सकते थे। उन्होंने कम प्रतिरोध वाला रास्ता चुना-अपने विचारों को जनमत में बदलकर पार्टी को नीतियां बदलने को मजबूर किया। वैचारिक रूप से वह अधिक कम्युनिस्ट नहीं थे, किंतु पार्टी की नीतियों के पालन में हमेशा विश्वासपात्र रहे और उन्होंने आदर्श कामरेड के रूप में व्यवहार किया। राजनीतिक रूप से उनका विराट योगदान है। हालांकि 1977 में मुख्यमंत्री का पद संभालने और 2000 में पद छोड़ने तक पश्चिम बंगाल में विकास की गति को देखते हुए उन्हें हालिया समय के सर्वाधिक विफल मुख्यमंत्री घोषित किया जा सकता है। उन्हें विरासत में जीर्णशीर्ण भवन मिला और उन्होंने उसी रूप में अगली पीढ़ी को उसे सौंप दिया। उन्होंने महज छत को टपकने से बचाए रखा।

[स्वप्न दासगुप्ता: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh