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बाग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान कोई चार दशक बाद दोनों देशों के संबंधों में वही गर्मजोशी और अपनापन दिखाई दिया जो बाग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय और उसके बाद था। जनवरी 1972 में जब शेख मुजीबुर्रहमान पाकिस्तान से रिहाई के बाद बरास्ता लंदन स्वदेश वापसी के लिए भारत होते हुए गुजरे तो इस देश ने बंगबंधु का ऐतिहासिक स्वागत किया था। वह बाग्लादेश और भारत की साझा सफलता, आत्मीयता और मित्रता का उत्सव था। तब शेख मुजीब ने कहा था कि भारत के लोग बाग्लादेश के सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं और मुक्ति संग्राम के दौरान भारत ने जो कुछ किया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
दुर्भाग्य से बाग्लादेश सिर्फ शेख मुजीब या फिर उनकी अवामी लीग का देश ही नहीं था। शेख मुजीब की हत्या के बाद धीरे-धीरे वहा भारत को सर्वश्रेष्ठ मित्र तो क्या मित्र मानने की भावना भी क्षीण होती चली गई और कालातर में बाग्लादेश स्वयं को नुकसान पहुंचाने की हद तक जाकर भी भारत विरोध पर आमादा हो गया। कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस बाग्लादेश की स्वतंत्रता के संग्राम में भारत ने अपने नागरिकों और सैनिकों को खोया उसे खलनायक मानने वाले दलों और व्यक्तियों का वहा की राजनीति के 40 में से तीस साल तक प्रभुत्व रहा। भारत की मित्र समझी जाने वाली अवामी लीग का कार्यकाल तो कुल जमा एक दशक का रहा है।
शेख हसीना के ऐतिहासिक और बेहद सफल दौरे के बावजूद खालिदा जिया की बाग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की जैसी कटु प्रतिक्रिया आई है वह दुखद तो है ही, इस बात की परिचायक भी है कि भारत भले ही कितना भी आत्मीय, मैत्रीपूर्ण, उदार एवं सदाशयी हो जाए, उसे बाग्लादेश में सार्वत्रिक स्वीकार्यता मिलनी मुश्किल है। वहा कितने दलों की राजनीति की तो बुनियाद ही भारत के अनवरत विरोध पर निर्भर है। बाग्लादेश के पिछले चुनाव नतीजों ने भारत में दिलचस्पी और खुशी पैदा की, जिनमें अवामी लीग को भारी समर्थन हासिल हुआ। दोतरफा स्थायित्व और अनुकूल शक्तियों के सत्ता में होने से भारत और बाग्लादेश को अपने संबंधों में नई ताजगी तथा आत्मीयता पैदा करने और आपसी संदेह दूर कर विश्वास का माहौल बनाने का ऐतिहासिक मौका मिला है। शेख हसीना की भारत यात्रा के दौरान हुए पाच समझौते, भारत की ओर से किसी भी देश को दिया गया अब तक का सबसे बड़ा ऋण और बाग्लादेशी प्रधानमंत्री को मिला हमारे सर्वोच्च अलंकरणों में से एक इंदिरा गाधी शाति एवं विकास पुरस्कार इस बात की निशानदेही करता है कि भारत अपने इस पूर्वी पड़ोसी के साथ आत्मीय संबंध बनाने के लिए कितना आतुर है। आप चाहें तो इसे हमारे पड़ोसियों के साथ गर्मजोशी बढ़ाने के चीनी प्रयासों की पृष्ठभूमि में देख सकते हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि हमारे रुख में यह उत्कटता अनायास पैदा नहीं हुई है। खुशी की बात है कि बदलाव की बयार सिर्फ भारत की ओर से ही नहीं बह रही, वह बाग्लादेश की ओर से भी आई है। उल्फा सहित उत्तर पूर्वी भारत के जिन अलगाववादी और आतंकवादी संगठनों को बाग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और फौजी शासकों के राज में प्रश्रय मिला, उन्हें लेकर वहा की मौजूदा सरकार का रुख एकदम स्पष्ट है। हाल ही में रहस्योद्घाटन हुआ है कि खालिदा जिया के शासनकाल में पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपनी बाग्लादेश यात्रा के समय उल्फा नेता अनूप चेतिया से मुलाकात की थी।
शेख हसीना सरकार ने बाग्लादेश से निर्बाध गतिविधिया संचालित कर रहे उल्फा के अरविंद राजखोवा जैसे वरिष्ठ नेताओं को भारत के हवाले कर उन्होंने उस विश्वसनीयता और सदाशयता का परिचय दिया है जिसकी उम्मीद भारत दशकों से कर रहा था। आतंकवाद के विरुद्ध स्पष्ट रुख जताने और बाग्लादेश की सरजमीं पर भारत विरोधी गतिविधियों को बर्दाश्त न करने की घोषणा कर उन्होंने भारतीयों का दिल जीत लिया। वह भारत को दो बाग्लादेशी बंदरगाहों तक पहुंच भी उपलब्ध कराने पर सहमत हो गई हैं। दूसरी ओर भारत ने लगभग पौने पाच हजार करोड़ रुपए की आर्थिक सहायता देकर जाहिर कर दिया है कि यदि उसकी आर्थिक समृद्धि का लाभ पड़ोसियों तक पहुंचता है तो इसमें उसे आपत्ति नहीं है। श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल आदि की ही भाति बाग्लादेश में भी यह आम धारणा रही है कि भारत अपने सभी पड़ोसी राष्ट्रों पर प्रभुत्व कायम रखना चाहता है। शायद शेख हसीना की यात्रा से वह धारणा टूटे। अब कोशिश यह रहनी चाहिए कि गलतफहमिया दूर करने का यह सिलसिला सिर्फ बाग्लादेश तक सीमित न रहे।
[बालेंदु दाधीच: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
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