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अपनी 125वीं जयंती के अवसर पर कांग्रेस ने पांच नेताओं- जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर केंद्रित एक होर्रि्डग लगाया है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी का अपने राजवंश के प्रति प्रेम तो समझ आ सकता है, किंतु इन नेताओं को ही केंद्र-बिंदु बनाना तो इतिहास के साथ खिलवाड़ हुआ। नि:संदेह नेहरू इसी वंश से थे, किंतु उन्होंने सभी से स्नेह किया और देश से तो इतना अधिक किया कि जिन संस्थानों का उन्होंने निर्माण किया उन पर अब भी उनकी छाप है। एक लोकतांत्रिक बहुलवादी संविधान देश को उनका उपहार है। तीन अन्य इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी ने कांग्रेस का उपयोग बेहतरी और सुधार के एक औजार के रूप में नहीं, बल्कि सत्ता के लिए किया। इन तीनों में ही वह विशिष्टता नहीं है जो नेहरू में थी। इंदिरा गांधी को तो मूलभूत अधिकारों को निलंबित करने ‘श्रेय’ जाता है। उन्होंने एक लाख से भी अधिक व्यक्तियों को बिना अभियोग चलाए ही जेल में डाल दिया। राजीव गांधी के शासनकाल में दिल्ली में तीन हजार सिखों की हत्या में अधिकारियों और अनेक कांग्रेसी नेताओं की साठगांठ रही। सोनिया गांधी ने शीर्ष पार्टी नेताओं की उस बैठक की अध्यक्षता की जिसमें तेलंगाना के एक नए राज्य के गठन का निर्णय लेकर देश के विखंडन की आशंका बलवती हुई। सत्य है कि राहुल गांधी सोनिया गांधी के पुत्र हैं और वह आजकल खूब चर्चा में भी हैं, किंतु उन्हें नेहरू के साथ खड़ा करना तो सत्ता के सूत्रधारों की सोच की ही झलक देता है। यह उनके और पार्टी के लिए भी अनुचित है। राहुल की अपनी हैसियत उनके वंश मात्र से नहीं हो सकती। उनके काम से ही उनकी हैसियत का परीक्षण हो सकेगा।
राहुल गांधी को इस ढंग से आगे लाया जाना कांग्रेस में अन्य विकल्पों के द्वार बंद करने सरीखा है। राहुल गांधी को होर्डिग में शीर्ष पांच नेताओं में दर्शाने से यही मतलब निकलता है कि उनमें नेतृत्व के गुणों की पहले से ही कल्पना कर ली गई है, जबकि राहुल को अभी इन्हें सिद्ध करना है। दरअसल, 1884 में इंग्लैंड निवासी ए ओ ह्यूम द्वारा स्थापना से लेकर इटली मूल की भारतीय सोनिया गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने एक लंबा सफर तय किया है। फिर भी यह तथ्य अपनी जगह सही है कि जिस व्यक्ति ने कांग्रेस को एक जन-संगठन या दल में बदला वह महात्मा गांधी ही थे। यदि संगठनकर्ता उन्हें प्रमुखता देते भी हैं तो वे उन पर कोई अहसान नहीं करेंगे, किंतु उन्हीं महात्मा गांधी को उस होर्डिग में स्थान नहीं दिया गया। वैसे भी महात्मा गांधी को नेहरू के अलावा किसी अन्य के साथ दर्शाना अप्रासंगिक ही होता। कांग्रेस राडार पर मौलाना अब्दुल कलाम आजाद भी कहीं नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के वह एक प्रमुख नेता थे, जिन्होंने अपना सब कुछ इस संग्राम में दांव पर लगा दिया था। वस्तुत: उन्हें पार्टी ने भुला ही दिया है। उनका फोटो कांग्रेस अधिवेशनों में भी कभी-कभार ही दिखाई देता है। वर्षो से कांग्रेस के नैतिक मूल्य और मान्यताएं ही बदल गई हैं। मितव्ययिता और आडंबरहीनता कभी उसकी दिशा थी। आज पार्टी पर पंचतारा संस्कृति हावी है। खासतौर पर भ्रष्टाचार तो लेशमात्र भी सहन नहीं था। नेहरू ने केशव देव मालवीय को इसलिए कैबिनेट से बाहर कर दिया था कि उन्होंने पार्टी के नाम पर पैसा लिया था, किंतु इस बारे में सूचित नहीं किया था। कांग्रेस के वर्तमान ढांचे में लाल बहादुर शास्त्री का उल्लेख कम ही होता है। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो को इसलिए पद त्याग करना पड़ा था, क्योंकि जस्टिस दास आयोग ने कैरो को एक छोटे से आरोप में दोषी ठहराया था, किंतु न राजीव गांधी और न ही सोनिया गांधी ने बोफोर्स घोटाले में किसी को दोषी पाया। पारिवारिक मित्र ओटोवियो क्वात्रोची के विरुद्ध केस बंद करने की स्थिति बनी। झारखंड के मधु कौड़ा को मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस ने ही नामजद किया था। कांग्रेस ने जनता के बीच काम करने वालों को पार्टी का हुक्म बजा लाने वाले उपकरणों में बदल दिया है। नौकरशाहों ने देश को मुसीबत में डाला है, किंतु अन्य दल भी बेहतर नहीं हैं। सबसे अधिक दोष भाजपा को देना होगा। यह आरएसएस की हिंदू राष्ट्र नीति पर चली और अल्पसंख्यकों को सांप्रदायिकता के सागर में डुबाने का प्रयास किया। शुभ समाचार यही है कि भाजपा का बड़ी तेजी से ह्रास हो रहा है। भाजपा और उसके सहयोगी दलों आठ राज्यों में हारे जहां गत वर्ष चुनाव हुए थे। हार के कारण ही संघ ने सीधे पार्टी की कमान संभाल ली है, मगर उसके नेता इस हकीकत का सामना नहीं करना चाहते कि कट्टरवाद की अब अधिक पूछ नहीं रही। वामपंथी अभी भी अपने घाव सहला रहे हैं। लोकसभा में उनकी संख्या 64 से घटकर 16 रह गई है।
पश्चिम बंगाल और केरल में भी विपक्ष मजबूत होकर उभरा है। इन दोनों ही राज्यों में वामदलों की सरकार है। मुलायम सिंह की सपा और लालू यादव के राजद जैसे क्षेत्रीय दल भी लड़खड़ा रहे हैं। एकमात्र क्षेत्रीय दल जिसने राज्य चुनावों में विजय पाई है वह है उड़ीसा का बीजू जनता दल। तमिलनाडु में द्रमुक और बिहार में जनता दल को अभी भी कसौटी पर खुद को कसना बाकी है। मायावती अपना आधार गंवा रही हैं। अतएव ऐसा कोई भी विपक्षी दल नहीं है, जो कांग्रेस का विकल्प बन सके। असीम सत्ता सुख से पार्टी असीम भ्रष्टाचार की शिकार हो सकती है। पार्टी ने खाद्यान्न के बढ़ते मूल्यों की रोकथाम के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस सत्ता पाकर भ्रष्ट हो गई है। एक ऐसे वैकल्पिक दल का होना जरूरी है जो सेक्युलरिज्म और जन कल्याण को प्रतिबद्ध हो। कांग्रेस का सत्ता क्षेत्र जितना व्यापक होगा, उतना ही नैतिक मूल्यों पर ध्यान देने का सिलसिला उसमें घटता जाएगा।
[कुलदीप नैयर : लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं]
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